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________________ सर्वोत्कृष्ट मुनि] भगवान् श्री अरिष्टनेमि '३६६ विनीत और मद स्वभाव के कारण वे थोड़े ही दिनों में सबके प्रिय और सम्मानपात्र बन गये । कठिन संयम और तप की साधना करते हुए उन्होंने शास्त्रों का भी अध्ययन किया। कुछ काल व्यतीत होने पर ढंढण मुनि के पूर्व-संचित अन्तराय-कर्म का उदय हुअा। उस समय वे कहीं भी भिक्षा के लिए जाते तो उन्हें किसी प्रकार की भिक्षा नहीं मिलती। उनका अन्तराय-कर्म इतनी उग्रता के साथ उदित हा कि उनके साथ भिक्षार्थ जाने वाले साधूत्रों को भी कहीं से भिक्षा प्राप्त नहीं होती और ढंढण मुनि एवं उनके साथ गये हुए साधुओं को खाली हाथ लौटना पड़ता । यह क्रम कई दिन तक चलता रहा । एक दिन साधुषों ने भगवान् नेमिनाथ को वन्दन करने के पश्चात् पूछा"भगवन् ! यह ढंढण ऋषि माप जैसे त्रिलोकीनाथ के शिष्य हैं, महाप्रतापी अर्द्धचक्री कृष्ण के पुत्र हैं पर इन्हें इस नगर के बड़े-बडे श्रेष्ठियों, धर्मनिष्ठ श्रावकों एवं परम उदार गृहस्थों के यहां से किंचित् मात्र भी भिक्षा प्राप्त नहीं होती । इसका क्या कारण है ?" __मुनियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु नेमिनाथ ने कहा-"ढंढरण अपने पूर्व भव में मगध प्रान्त के 'धान्यपुर' ग्राम में 'पारासर' नाम का ब्राह्मण था। वहां राजा की ओर से वह कृषि का प्रायुक्त नियुक्त किया गया। स्वभावतः कठोर होने से वह ग्रामीणों के द्वारा राज्य की भूमि में खेती करवाता और उनको भोजन के समय भोजन ग्रा जाने पर भी खाने की छुट्टी न देकर काम में लगाये रखता । भूखे, प्यासे और थके हुए बैलों एवं हालियों से पृथक-२ एक. एक हलाई (हल द्वारा भूमि को चीरने को रेखा) निकलवाता । अपने उस दष्कृत के फलस्वरूप इसने घोर अन्तराय-कर्म का बन्ध किया। वही पारासर मर कर अनेक भवों में भ्रमण करता हुमा ढंढरण के रूप में जन्मा है । पूर्वकृत अन्तराय-कर्म के उदय से ही इसको सम्पन्न कुलों में चाहने पर भी भिक्षा नहीं मिलती।" भगवान् के मुखारविन्द से यह सब सुनकर ढंढरण मुनि को अपने पूर्वकृत दुष्कृत के लिए बड़ा पश्चात्ताप हुमा । उसने प्रभु को नमस्कार कर यह अभिग्रह किया, "मैं अपने दुष्कर्म को स्वयं भोग कर काटूगा मौर कभी दूसरे के द्वारा प्राप्त हुमा भोजन ग्रहण नहीं करूंगा।" अन्तराय के कारण ढंढण को कहीं से भिक्षा मिलती नहीं और दूसरों द्वारा लाया गया माहार उन्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार लेना था नहीं, इसके परिणामस्वरूप ढंढरण मुनि को कई दिनों की निरन्तर निराहार तपस्या हो गई। फिर भी वे समभाव से तप और संयम की साधना प्रविचल भाव से करते रहे। एक दिन श्रीकृष्ण ने समवसरण में ही पूछा-"भगवन् ! प्रापके इन सभी महान् मुनियों में कठोर साधना करने वाले कौनसे मुनि हैं ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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