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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा काल का प्रश्न है, यह उस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ही प्रकट है कि महाकवि पुष्पदन्त ने सिद्धार्थ नामक शक संवत् ८८१, तदनुसार विक्रम सं० १०१६ में महापुराण की रचना प्रारम्भ की और क्रोधन शक संवत् ८८७ तदनुसार विक्रम सं० १०२२ में इस रचना को पूर्ण किया। महाकवि पुष्पदन्त मान्यखेट के राष्ट्रकुटवंशीय राजा कृष्णराज तृतीय के मन्त्री भरत के आश्रित कवि थे। इतिहास में कृष्णराज तृतीय का राज्यकाल वि० सं० ६६६ से १०२५ तक माना गया है। कृष्णराज तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई खोट्टिगदेव मान्यखेट के राजसिंहासन पर बैठा । वि० सं० १०२६ में मालवराज धाराधिपति हर्षदेव ने मान्यखेट पर आक्रमण कर उसे लटा, नष्ट किया और इस प्रकार मान्यखेट का राज्य राष्ट्रकूटवंशीय राजाओं के हाथ से निकल गया। इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख स्वयं महाकवि पुष्पदन्त' ने महापुराण में स्थान-स्थान पर दिये प्रशस्ति के कतिपय स्फुट श्लोकों में से एक श्लोक में तथा उनके समकालीन विद्वान् धनपाल ने अपनी “पाइयलच्छीनाममाला"२ में किया है। परस्पर पूर्णतः परिपुष्ट इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि आज से १०२० वर्ष पहले, जिस समय महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण की रचना प्रारम्भ की, उस समय जैनसंघ में यह मान्यता व्यापक रूप से लोकप्रिय, रूढ़ एवं प्रचलित थी कि भ० ऋषभदेव का प्रथम पारणक वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन हुआ था और युगादि के वर्गविहीन सम्पूर्ण मानव समाज ने अपने सार्वभौम लोकनायक, मानव संस्कृति के संस्थापक एवं अपने अनन्य उपकारी आदि देव के पारणक के दिन को अक्षय तृतीया के पावन पर्व के रूप में मनाना युगादि में ही प्रारम्भ कर दिया था। १ दीनानाथघनं बहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं, मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ।। पूना और करंजा की प्रतियों में ५०वीं संधि और जयपुर की हस्तलिखित प्रति की ५२वों संधि में उल्लिखित - देखिये : - महापुराण का इन्ट्रोडक्शन, पी० एल० वैद्य द्वारा प्रस्तुत, पृ० २५ २ विक्कमकालस्स गए, अउणत्तीसुत्तरे सहस्संमि (वि० सं० १०२६) मालवनरिंदधाडीए, लडिये मन्नखेडंमि। धारा नयरीए परिठिएण मग्गे ठियाए अणवज्जे, कज्जे करिणट्ठ बहिणीए, सुंदरी नामधिज्जाए। कइणो अंध जण किंवा कुसल त्ति पयाणमंतिया वण्णा, (धरणवाल-धनपाल) नामम्मि जस्स कमसो, तेणेसा विरइया देसी ।। -पाइयलच्छीनाममाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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