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________________ ५७ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव एतद्विषयक तीसरा उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के उल्लेख से लगभग २०० वर्ष और आज से १०२० वर्ष पूर्व का है । वह उल्लेख है अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ महापुराण का, जो इस प्रकार है :हेला : ता दुंदुहि रवेण भरियं दिसावसारणं । भरिणया सुरवरेहि भो साह साह दाणं ।।१।। पंचवण्णमाणिक्कमिसिट्ठी, घरप्रंगणि वसुहार वरिट्ठी। णं दीसइ ससिरविबिंबच्छिहि, कंठभट्ट कंठिय पहलच्छिहि । मोहबद्धरणवपेम्महिरी विव, सग्ग सरोयह रणालसिरी विव । रयणसमुज्जलवरगयपंति व, दाणमहातरुहलसंपत्ति व । सेयंसह घणएण णिजिय, उक्कहिं उडमाला इव पंजिय। पूरियसंवच्छर उववासे, अक्खयदाणु भगिउँ परमेसें। तहु दिवसहु अत्थेरण समायउ, अक्खयतइय गाउ संजायउ । घरु जायवि भरहें अहिणंदिउ, पढ़मु दाणतित्थंकरु वंदिउ । ४ एम. एडस आफटर दिस लाइन M. adds after this line :- (अर्थात एम. नाम की प्रति में इस पंक्ति के आगे यह गाथा और लिखी हुई है : अहियं पक्ख तिषण सविसेसें, किंचूणे दिण कहिय जिणेसें । भोयरणवित्ती लहीय तमणासे, दाणतित्थु घोसिउ देवीसें ।' __महाकवि पुष्पदन्त ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ज्यों ही श्रेयांसकुमार ने अपने राजप्रासाद में भगवान ऋषभदेव को इक्षरस से पारणा करवाया त्यों ही दुन्दुभियों के घोष से दशों दिशाएँ पूरित हो गईं। देवों ने अहो दानम्, अहो दानम् एवं साधु-साधु के निर्घोष पुनः पुनः किये। श्रेयांस के प्रासाद के प्रांगण में दिव्य वसुधारा की ऐसी प्रबल वष्टि हई कि चारों ओर रत्नों की विशाल राशि दृष्टिगोचर होने लगी। प्रभु का संवत्सर तप पूर्ण हुया और कुछ दिन कम साढ़ा तेरह मास के पश्चात् भोजनवृत्ति प्राप्त होने पर भगवान् ने प्रथम तप का पारण किया। इस दान को अक्षयदान की संज्ञा दी गई। उसी दिन से प्रभू के पारणक के उस दिन का नाम अक्षय तृतीया प्रचलित हुआ। भरत चक्रवर्ती ने श्रेयांसकुमार के घर जाकर उनका अभिनन्दन एवं सम्मान करते हुए कहा, "वत्स ! तुम इस अवसपिणीकाल के दानतीर्थ के प्रथम संस्थापक हो, अतः तुम्हें प्रणाम है।" पुष्पदन्तप्रणीत महापुराण के इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि जैनसंघ में यह मान्यता प्राचीन काल से चली आ रही है कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हुआ । जहाँ तक महापुराण के रचना' पुष्पदन्तप्रणीत "महापुराण के अादि पुराण की रिसहकेवलणाणुत्पत्ती नामक नवम संधि, पृ० १४८-१४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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