SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा और प्रभु से निवेदन किया, "हे आदि प्रभो! आदि तीर्थेश्वर ! जन्म-जन्म के आपके इस दास के हाथ से यह निर्दोष कल्पनीय इक्षुरस ग्रहण कर इसे कृतकृत्य कीजिये।" प्रभु ने करद्वयपुटकमयी अंजलि आगे की। श्रेयांस ने उत्कट श्रद्धा-भक्ति एवं भावनापूर्वक इक्षुरस प्रभु की अंजलि में उंडेला । इस प्रकार भ० ऋषभदेव ने बाहुबली के पौत्र इक्ष्वाकु कुल प्रदीप श्रेयांसकुमार के हाथों अपने प्रथम तप का पारण किया। देवों ने गगनमण्डल से पंच दिव्यों की वृष्टि की। अहो दानम्, अहो दानम् ! के निर्घोषों, जयघोषों और दिव्य दुन्दुभि-निनादों से गगन गूंज उठा। दशों दिशाओं में हर्ष की लहरें सी व्याप्त हो गई। राध-शुक्ला अर्थात् वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन युवराज श्रेयांस ने भगवान ऋषभदेव को प्रथम पारणक में इक्षरस का यह अक्षय दान दिया। इसी कारण वैशाख शुक्ला तृतीया लोक में उसी दिन से अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुई और वह अक्षय तृतीया का पर्व आज भी लोक में प्रचलित है। - यह है आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का उल्लेख जो पिछली आठ शताब्दियों से भी अधिक समय से लोकप्रिय रहा है। प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के समय के सम्बन्ध में अधिक कुछ कहने-लिखने की आवश्यकता नहीं, इतिहास प्रसिद्ध ये श्लोक ही पर्याप्त होंगे : शर-वेदेश्वरे (११४५) वर्षे, कार्तिके पूणिमानिशि । जन्माभवत् प्रभो-व्योम-बाण-शम्भो (११५०) व्रतं तथा ।।८५०।। रस-षटकेश्वरे (११६६) सूरि-प्रतिष्ठा समजायत । नन्द-द्वय-रवी (१२२६) वर्षेऽवसानममवत् प्रभोः ।।८५१।।' "प्राचार्य हेमचन्द्रसूरिने महान् ग्रन्थ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र की रचना अपनी आयु के अन्तिम वर्षों में की होगी"-- डा० हर्मन जेकोबी के इस अभिमत के अनुसार मोटे तौर पर अनुमान किया जा सकता है कि इस वृहदाकार ग्रन्थ के प्रथम पर्व की रचना उन्होंने वि० सं० १२१० के आसपास किसी समय में की होगी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आज से लगभग सवा आठ सौ वर्ष पूर्व जनसंघ में इस प्रकार की मान्यता रूढ़ और लोकप्रिय थी कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हया था। यहाँ यह स्मरणीय है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने भ० ऋषभदेव की दीक्षा तिथि का उल्लेख करते हुए स्पष्टतः लिखा है कि म० ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन चन्द्र का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग होने पर अपराह्न काल में श्रामण्य की दीक्षा ग्रहण की। यथा : तदा च चत्रबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसि श्रिते। नक्षत्रमुत्तराषाढामह्रो भागेऽथ पश्चिमे ।।६।। ' प्रभावकारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy