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भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव
उपर्यत श्लोकों में प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्टतः लिखा है कि संवत्सर पर्यन्त भ० ऋषभदेव मौन धारण किये हुए निराहार ही विभिन्न पार्य तथा अनार्य क्षेत्रों में विचरण करते रहे। तदनन्तर उन्होंने विचार किया कि जिस प्रकार दीपकों का अस्तित्व तेल पर और वृक्षों का अस्तित्व पानी पर निर्भर करता है, उसी प्रकार देहधारियों के शरीर भी आहार पर ही निर्भर करते हैं । यह विचार कर वे पुनः भिक्षार्थ प्रस्थित हुए और विभिन्न स्थलों में विचरण करते हुए अन्ततोगत्वा हस्तिनापुर पधारे। हस्तिनापुर में भी वे भिक्षार्थ घर-घर भ्रमण करने लगे। अपने नगर में प्रभु का आगमन सुनते ही पुरवासी अपने सभी कार्यों को छोड़ प्रभू दर्शन के लिये उमड़ पड़े । हर्षविभोर हस्तिनापूरनिवासी प्रभूचरणों पर लोटपोट हो उन्हें अपने-अपने घर को पवित्र करने के लिये प्रार्थना करने लगे। भ० ऋषभदेव भिक्षार्थ जिस-जिस घर में प्रवेश करते, वहीं कोई गहस्वामी उन्हें स्नान-मज्जन-विलेपन कर सिंहासन पर विराजमान होने की प्रार्थना करता, कोई उनके समक्ष रत्नाभरणालंकार प्रस्तुत करता, कोई गज, रथ, अश्व प्रादि प्रस्तुत कर, उन पर बैठने की अनुनय-विनयपूर्वक प्रार्थना करता। सभी गृहस्वामियों ने अपने-अपने घर की अनमोल से अनमोल महार्य वस्तुएँ तो प्रभु के समक्ष प्रस्तुत कों किन्तु आहार प्रदान करने की विधि से अनभिज्ञ उन लोगों में से किसी ने भी प्रभु के समक्ष विशुद्ध आहार प्रस्तुत नहीं किया। इस प्रकार अनुक्रमशः प्रत्येक घर से विशुद्ध आहार न मिलने के कारण प्रभु निराहार ही लौटते रहे ।
___ अपने प्राणाधिकवल्लभ आराध्य हृदयसम्राट् प्रादिनाथ को अपने घरों से बिना कुछ लिये लौटते देख नगरनिवासी आग्रहपूर्ण करुण स्वर में प्रभु से प्रार्थना करने लगे- 'इस प्रकार निराश न करो नाथ, कुछ न कुछ तो हमारी भेंट स्वीकार करो नाथ ! मुख से तो बोलो हमारे प्राणदाता बाबा आदिनाथ !"
इस प्रकार करुण प्रार्थना करता हा जनसमुद्र प्रभु के चारों ओर उत्तरोत्तर उमड़ता ही जा रहा था और मौन धारण किये हुए शान्त, दान्त भ० ऋषभदेव एक के पश्चात् दूसरे घर में प्रवेश करते एवं पुनः लौटते हुए भागे की ओर बढ़ रहे थे। राजप्रासाद के पास सुविशाल जनसमूह का कलकल जनरव सुन कर हस्तिनापुराधीश ने दौवारिक से कारण ज्ञात करने को कहा । प्रभु का आगमन सुन महाराज सोमप्रभ और युवराज श्रेयांसकुमार हर्षविभोर हो त्वरित गति से तत्काल प्रभु के सम्मुख पहुँचे । पादक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमन और चरणों में लुण्ठन के पश्चात् हाथ जोड़े वे दोनों पिता पुत्र आदिनाथ की ओर निनिमेष दृष्टि से देखते ही रह गये। गहन अन्तस्तल में छुपी स्मृति से श्रेयांसकुमार को आभास हुआ कि उन्होंने प्रभु जैसा ही वेष पहले कभी कहीं न कहीं देखा है । उत्कट चिन्तन और कमों के क्षयोपशम से श्रेयांसकुमार को तत्काल जातिस्मरणज्ञान हो गया। जातिस्मरण-ज्ञान के प्रभाव से उन्हें प्रभु के वज्रनाभादि भवों के साथ अपने पूर्वभवों का और मुनि को निर्दोष आहार प्रदान करने की विधि का स्मरण हो आया। श्रेयांस ने तत्काल निर्दोष-विशुद्ध इक्षुरस का घड़ा उठाया
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