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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा पारणक-पवित्रितायां वैशाखशुक्लाक्षय-तृतीयायां स्वपदे महाविस्तरेण स्थापिताः ।।
इस उल्लेख से यह सिद्ध हो जाता है कि आज से लगभग ७०० वर्ष पूर्व जैनसंघ में यह मान्यता न केवल प्रचलित ही थी अपितु लोकप्रिय और लोकप्रसिद्ध भी थी कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक वैशाख शुक्ला अक्षय तृतीया के दिन हुआ था।
"भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारएक अक्षय तृतीया के दिन हुमा" - इस प्रकार का पूर्णतः स्पष्ट दूसरा उल्लेख है आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" का जो खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली के एतद्विषयक उपयुक्त उल्लेख से लगभग १२० वर्ष और आज से ८१२ वर्ष पूर्व का है। वह उल्लेख इस प्रकार है :
पार्यांनार्येषु मौनेन, विहरन् भगवानपि । संवत्सरं निराहारश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥२३८।। प्रदीपा इव तलेन, पादपा इव वारिणा । पाहारेणेव वर्तन्ते, शरीराणि शरीरिणाम् ॥२३६।। स्वामी मनसि कृत्यैवं, भिक्षार्थं चलितस्ततः । पुरं गजपुरं प्राप, पुरमण्डलमण्डनम् ।।२४३॥ दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं, युवराजोऽपि तत्क्षणम् । अघावत् पादचारेण, पत्तीनप्यतिलंघयन् ॥२७७।। गृहांगणजुषो भर्तु लुंठित्वा पादपंकजे । श्रेयांसोऽमार्जयत् केशभ्रमरभ्रमकारिभिः ॥२८०॥ ईदृशं क्व मया दृष्टं, लिंगमित्यभिचिन्तयन् । विवेकशाखिनो बीजं, जातिस्मरणमाप सः ॥२८३३॥ ततोविज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु । गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदत् विभुम् ।।२६१।। प्रभुरप्यंजलीकृत्य, पाणिपात्रमधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपोक्षुरसकुम्भानलोठयत् ।। राधशुक्ल तृतीयायां, दानमासीत्तदक्षयम् ।
पक्षियतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१।। वसुदेवहिण्डी और हरिवंशपुराण के रचनाकारों ने प्रभु ऋषभदेव के प्रथम पारणक की तिथि के सम्बन्ध में ईहापोह का अवकाश रख कर, उसे एक प्रनबूझ पहेली बना कर छोड़ दिया था, उस पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने पूर्ण रूपेण स्पष्ट प्रकाश डाल कर उस अनबूझ पहेली का समाधान कर दिया है। . खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली, (सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई) २.त्रिषष्टिशलाकापुरुष परित्रम्, पर्व १, सगं ३
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