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भगवान् का प्रथम पारणा]
भगवान् ऋषभदेव
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दित्सुरिक्षुरसापूर्ण कुम्भमुधृत्य सोऽब्रवीत् ।।१८६।।
मुक्त दायकदोषश्च, गृहाण प्रासुकं रसम् ।।१८८।। वृत्तवृद्ध्यै विशुद्धात्मा, पाणिपात्रेण पारणम् । समपादस्थितश्चक्रे, दर्शयन् क्रियया विधिम् ।।१८६॥ अहो दानमहो दानमहो पात्रमहो क्रमः ।
साधु साध्विति खे नादः, प्रादुरासीद्दिवौकसाम् ।।१६१।।' सारांशतः - छः मास का तप पूर्ण होने पर ध्यान का उपसंहार कर भ० ऋषभदेव भिक्षा हेतु भ्रमण करने के लिये प्रस्थित हुए। अपने घर आये हुए प्रभु को देख कर लोग निनिमेष दृष्टि से उनकी ओर देखते ही रह जाते, उनके हर्ष का पारावार नहीं रहता। किन्तु उस समय के लोग भिक्षादान की विधि से नितान्त अनभिज्ञ थे, अतः प्रभू को समय पर भिक्षार्थ भ्रमण करते रहने पर भी कहीं विशुद्ध आहार-पानीय नहीं मिला। इस प्रकार ६ मास तक भ० ऋषभदेव निराहार ही विभिन्न ग्राम नगरादि में भ्रमण करते रहे। तदनन्तर वे हस्तिनापुर पधारे । श्रेयांसकुमार ने उन्हें देखा । श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हो गया और पूर्वभव की स्मृति से दान देने की विधि को जान कर उसने प्रभु को इक्षुरस से पारण करवाया । अहो दान ! अहो दाता ! अहो पात्र ! के निर्घोषों, देवदुंदुभियों के निनाद और साधु-साधु ! के साधुवादों से नभोमण्डल प्रापूरित हो गया । देवों ने पंच-दिव्यों की वृष्टि की।
___ इन श्लोकों में "षण्मासानविषण्णधी:... विजहार महि क्रमात्" के पश्चात् 'सम्प्राप्तोऽथ""इभपुरि विभुः ।" यह पदविन्यास मननीय है । ६ मास के तप के पूर्ण होने पर ६ मास तक निराहार विचरण करते रहे। इस वाक्य के पश्चात् "अथ" शब्द के प्रयोग से यही अर्थ प्रकट होता है कि ६ मास तक निराहार विचरण करने के पश्चात् विहार क्रम से भ० ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे । पर कितने दिन पश्चात् पधारे, यह इससे स्पष्ट नहीं होता। पारणक की तिथि का उल्लेख न कर एक प्रकार से हरिवंशपुराणकार ने भी इस प्रश्न को पहेली के रूप में ही रख दिया है।
जिन तीन प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भ० ऋषभदेव का पारणा वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन अर्थात् अक्षय तृतीया को हुआ, उनमें से पहला उल्लेख है खरतरगच्छ वहद्गुर्वावली का। उसमें लगभग ७०० वर्ष पूर्व की एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा गया है :श्री पूज्याः श्री जावालिपुरे समायाताः । तत्र च श्री जिनप्रबोध सूरिभिः........ प्रवरगभीरिमाधरीकृतवार्घयः श्री जिन-चन्द्रसूरयः सं० १३४१ श्री युगादिदेव'हरिवंशपुराण, सर्ग ६
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