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________________ भगवान् का प्रथम पारणा ] भगवान् ऋभषदेव ५६ भ० ऋषभदेव के प्रथम तप के सम्बन्ध में यह तथ्य सदा ध्यान में रखने योग्य है कि प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करते समय जो तप अंगीकार किया था, वह श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार बेले का और दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार ६ मास का तप था, न कि संवत्सर तप अर्थात् एक वर्ष अथवा उससे अधिक का । उस समय के लोग साधुओं को आहार प्रदान करने की विधि से अनभिज्ञ थे अतः प्रभु का वह स्वतः प्रचीर्ण तप उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और एक वर्ष से भी अधिक अवधि व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रथम तप का पारण हुआ । अधिकतम तप के सम्बन्ध में, दोनों परम्पराओं की क्रमशः बारह . मास और ६ मास के उत्कृष्ट तप की जो सीमाएं थीं, उन सीमाओं को प्रभु ऋषभदेव का प्रथम तप परिस्थितिवशात् लांघ गया था । जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में तप की सीमा ६ मास की ही मानी गई है पर प्रभु आदिनाथ का प्रथम तप तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उस सीमा का अतिक्रमण कर गया, उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में तप की जो उत्कृष्टतम सीमा १२ मास मानी गई है, उस सीमा को उस समय की परिस्थितियों के कारण आदि प्रभु का प्रथम तप लांब गया । वस्तुतः देखा जाय तो मानवता पर भगवान् ऋषभदेव के असीम महान् उपकार हैं। प्रकृति की सुखद गोद में पले और अपने जीवन की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिये केवल प्रकृति पर निर्भर करने वाले प्रकृतिपुत्र योगलिक - मानव समाज के सिर पर से जब प्रकृति ने अपना हाथ उठा लिया, उस समय आदि लोकनायक ऋषभदेव ने उन प्रकृतिपुत्रों पर अपना वरद हस्त रखा । जीवनयापन की कला से नितान्त अनभिज्ञ उन लोगों को सुखी और सम्पन्न सांसारिक जीवनयापन के लिये परमावश्यक असि, मसि एवं कृषि कर्मों और सभी प्रकार की कलाओं का ज्ञान देकर उन्होंने प्रकृतिपुत्रों को स्वावलम्बी प्रात्मनिर्भर पौरुषपुत्र बनाया । परावलम्बिनी मानवता को भौतिक क्षेत्र में स्वावलम्बिनी बनाने के पश्चात् उन्होंने जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा दिलाने वाले सत्पथ को प्रकट करने हेतु उत्कट साधना की । साधना द्वारा कैवल्योपलब्धि के अनन्तर उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण के लिये भवार्णव. से पार उतारने वाले मुक्तिसेतु धर्मतीर्थ की प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में सर्वप्रथम स्थापना की । भ० ऋषभदेव द्वारा स्थापित किये गये धर्मतीर्थ की शरण ग्रहरण कर अनादिकाल से जन्म-मरण की विकराल चक्की में पिसते आ रहे अनेकानेक भव्य प्राणियों ने जन्म-मरण के बीजभूत आठों कर्मों को क्षय कर शाश्वत सुखधाम अजरामर पद प्राप्त किया। भ० ऋषभदेव ने एक ऐसी सुखद- सुन्दर मानव संस्कृति का सूत्रपात किया, जो सहअस्तित्व, विश्वबन्धुत्व आदि उच्चकोटि के उत्तमोत्तम मानवीय गुणों से प्रोतप्रोत और प्राणीमात्र के लिये, इह लोक एवं पर लोक, दोनों ही लोकों में कल्याणकारिणी थी । मानव समाज अपने हृदयसम्राट महाराजा अथवा लोकनायक ऋषभदेव द्वारा ये Jain Education International For Private & Personal Use Only + www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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