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________________ ६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् का प्रथम पारणा गये कर्मक्षेत्र के पथ पर आरूढ़ हो जिस प्रकार सुख-समृद्धि प्रतिष्ठा और वैभव के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन हुआ, उसी प्रकार कैवल्योपलब्धि के अनन्तर भावतीर्थंकर बने अपने धर्मनायक भगवान् ऋषभदेव द्वारा स्थापित किये गये धर्मपथ पर प्रारूढ़ हो आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उन्नति के उच्चतम आसन पर अधिष्ठित हुआ । भगवान् ऋषभदेव द्वारा मानवता के प्रति किये गये इन असीम अनुपम उपकारों से उपकृत उस समय की वर्गविहीन मानवता के मानवमात्र ने भगवान् ऋषभदेव को अपना सार्वभौम लोकनायक, सार्वभौम धर्मनायक, त्राता, धाता, भाग्यविधाता और भगवान् माना। सभी धर्मों के प्राचीन धर्मग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव का वही सार्वभौम स्थान है, जो जैन धर्मग्रन्थों में है । ऋग्वेद, एवं - अथर्ववेद में ऋषभ का गुणगान है । श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, कूर्मपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण आदि वैष्णव परम्परा के पुराण नाभिनन्दन ऋषभदेव की यशोगाथाओं से भरे हैं। पुराणों में उन्हें भगवान् का आठवां अवतार माना गया है । मनुस्मृति में उनका यशोगान है । बौद्ध ग्रन्थ "प्रार्य मंजुश्री " में उनकी यशोगाथा है | महाकवि सूरदास ने अपने भक्तिरस से ओतप्रोत ग्रन्थ सूरसागर में ऋषभ की स्तुति की है। इससे प्रकट है कि भ० ऋषभदेव मानवमात्र के आराध्य थे । कोटि-कोटि मानव आज बड़ी श्रद्धा के साथ बाबा आदम के नाम से जिन्हें याद करते हैं, वह भी देखा जाय तो भ० ऋषभ की प्रस्फुट स्मृति का ही प्रतीक है | विश्वास किया जाता है कि युगादि में मानव समाज ने अपने परमोपकारी महाप्रभु ऋषभदेव की स्मृति में उनके जीवन की प्रमुख घटनानों को लेकर पर्व प्रचलित किये। उनमें से कतिपय तो काल की पर्त में तिरोहित हो गये और कतिपय आज भी प्रचलित हैं । अक्षय तृतीया का पर्व प्रभु के प्रथम पारणक के समय श्रेयांसकुमार द्वारा दिये गये प्रथम अक्षय दान से सम्बन्धित है, इस प्रकार का प्रभास वाचस्पत्यभिधान के निम्नलिखित श्लोकों से होता है : I : वैशाखमामि राजेन्द्र शुक्लपक्षे तृतीयका । अक्षया सातिथि प्रोक्ता, कृतिका रोहिणीयुता || तस्यां दानादिकं सर्वमक्षयं समुदाहृतम् ।..... श्रेयांसकुमार के द्वारा दिये गये अक्षय और महान् सुपात्रदान के अतिरिक्त और कोई इस प्रकार का दान दिये जाने का भारतीय धर्म ग्रन्थों में उल्लेख नहीं मिलता । इन सब प्राचीन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि भगवान् का प्रथम पाररक अक्षय तृतीया के दिन हुआ । केवलज्ञान की प्राप्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु एक हजार वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरते हुए तपश्चरण द्वारा आत्मस्वरूप को प्रकाशित करते रहे। अन्त में प्रभु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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