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________________ केवलज्ञान की प्राप्ति भगवान् ऋषभदेव पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उद्यान में पधारे। वहां फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन' अष्टम तप के साथ दिन के पूर्व भाग में, उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में प्रभु ध्यानारूढ़ हुए और क्षपक श्रेणी से चार घातिक कर्मों को नष्ट कर आपने केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि की। देव एवं देवपतियों ने केवलज्ञान का महोत्सव किया। केवलज्ञान की प्राप्ति एक वटवृक्ष के नीचे हुई, अतः अाज भी वटवृक्ष देश में आदर एवं गौरव की दृष्टि से देखा एवं प्रभु आदिनाथ का चैत्यवृक्ष माना जाता है। केवलज्ञान की प्राप्ति से अब भगवान् भाव अरिहन्त होगये । अरिहंत होने पर आपमें बारह गुण प्रकट हुए, जो इस प्रकार हैं : (१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त चारित्र यानी वीतराग भाव, (४) अनन्त बल-वीर्य, (५) अशोक वृक्ष, (६) देवकृत पुष्पवष्टि, (७) दिव्य-ध्वनि, (८) चामर, (६) स्फटिक-सिंहासन, (१०) छत्र-त्रय, (११) आकाश में देव-दुन्दुभि और (१२) भामण्डल । पांच से बारह तक के आठ गुणों को प्रातिहार्य कहा गया है । भक्तिवश देवों द्वारा यह महिमा की जाती है । तीर्थंकरों की विशेषता सामान्य केवली की अपेक्षा अरिहंत तीर्थंकर में खास विशेषताएं होती हैं। आचार्यों ने मूलभूत चार अतिशय बतलाये हैं। यद्यपि वीतरागता और सर्वज्ञता, तीर्थकर और सामान्य केवली में समान होती हैं पर तीर्थंकर की प्रभावोत्पादक अन्य भी विशेषताएं अतिशय रूप में होती हैं, जिनके लिए समवायांग सूत्र में "चोतीसं बुद्धाइसेसा" और "पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णता" कहा गया है। श्वेताम्बर परम्परा में शास्त्रोक्त चौंतीस अतिशय इस प्रकार हैं : तीथंकरों के चौंतीस प्रतिशय ( १ ) अनट्ठिए केसमंसुरोमनहे केश रोम और स्मश्रु का अवस्थित रहना। (२) निरामया निरुवलेवा गायलट्टी शरीर का रोगरहित एवं निर्लेप होना। ( ३ ) गोक्खीरपंडुरे मंससोगिए गौ-दुग्ध की तरह रक्त-मांस का श्वेत होना । (४) पउमुप्पलगंधिए उस्सास- श्वासोच्छ्वास का उत्पल कमल की निस्सासे __तरह सुगन्धित होना। (५) पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से पाहार नीहार प्रच्छन्न-अर्थात् चर्मचक्ष मंसचक्खुणा से अदृश्य होना। ' कल्पमूत्र १६६, पृ० ५८ तथा प्रावश्यक नि० गाथा २६३ । २ अशोकवृक्ष: मुग्पुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमागनं च । MITHLEलं दन्दभिरातपत्र मत्प्राति हागि जिनेश्वगणाम् ।। अपाया पगमानिणयो- ज्ञानानिणयः पूजातिणयो वागतिशयश्न । -अभिधान गजेन्द्र, १, पृ० ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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