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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [तीर्थंकरों की विशेषता , ( ६ ) आगासगयंचक्कं । आकाशगत चक्र होना । (७) प्रागासगयं छत्तं ." आकाशगत छत्र होना। (८) आगासगयाओ सेयवर आकाशगत श्वेत चामर होना ।
चामराम्रो ( ६ ) अागासफालिग्रामयं सपायपीढं आकाशस्थ सपादपीठ स्फटिक सीहासणं
सिंहासन । (१०) आगासगो कूडभीसहस्सपरि- हजार पताका वाले इन्द्रध्वज का
मंडिआभिरामो इन्दज्झनो अाकाश में आगे चलना।
पुरो गच्छइ (११) जत्थ जत्थ वि य रणं अरहंतो अर्हन्त भगवान् जहां जहां ठहरें, वहां
भगवन्तो चिट्ठति वा निसीयंति वहां तत्काल फूल-फल युक्त अशोक वृक्ष वा तत्थ तत्थ वियरणं तक्खणा- का होना। देव संछन्नपत्तेपुप्फपल्लव समाउलो सच्छत्तो सज्झयो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो
अभिसंजायई (१२) ईसि पिट्ठयो मउडठाणमि भगवान् के थोड़ा पीछे की ओर मुकुट
तेयमंडलं अभिसंजाय इ अंधयारे के स्थान पर तेजोमंडल होना जो दशों .
वि य रणं दस दिसायो पभासेइ दिशाओं को प्रकाशित करता है। (१३) बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भूमि-भाग का रमणीक होना । (१४) अहोसिरा कंटया जायंति . काँटों का अधोमुख होना। (१५) उऊ विवरीया सुहफासा भवंति ऋतुओं का सब प्रकार से सुखदायी
होना। (१६) सीयलेणं सुहफासेरणं सुरभिरणा शीतल-सुखद-सुगन्धित वायु द्वारा चारों
मारुएरणं जोयरणपरिमंडलं ओर चार-चार कोस तक भूमि का
सव्वो समंता संपमज्जिज्जइ स्वच्छ होना। (१७) जुतफुसिएरण मेहेण य निहयर- जल-बिन्दुओं से भूमि की धूलि का यरेण्यं किज्जइ
शमन होना। (१८) जलथलय भासुरपभूतेणं पांच प्रकार के प्रचित्त फूलों का जानु
विटठाइणा दसद्धवण्णेरणं प्रमाण ढेर लगना । कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमारणमित्ते
(अचिने) पुप्फोवयारे किज्जइ (१६) अमरगाणं सद्दफरिस रस- अशुभ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श
रूवगंधाणं अवकरिसो भवइ का अपकर्ष होना।
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