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तीर्थंकरों की विशेषता] भगवान् ऋषभदेव (२०) मणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूव- शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि
गंधारणं पाउब्भाप्रो भवइ का प्रकट होना। (२१) पच्चाहरो वि य णं हियय- बोलते समय भगवान् के गंभीर स्वर
गमणीप्रो जोयणनीहारी सरो का एक योजन तक पहुँचना। (२२) भगवं च णं अद्धमागहीए अर्द्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्म
भासाए धम्ममाइक्खइ प्रवचन फरमाना। (२३) सा वि य णं अद्धमागही भासा अर्द्धमागधी भाषा का प्रार्य, अनार्य,
भासिज्जमारणी तेसि सव्वेसिं मनुष्य और पशुओं की अपनी-अपनी आरियमणारियाणं दुप्पय- भाषा के रूप में परिणत होना। चउप्पअमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिव
सुहयभासत्ताए परिणमइ (२४) पुत्वबद्धवेरा वि य रणं देवासुर- भगवान के चरणों में पूर्व के वैरी देव,
नागसुवण्णजक्ख रक्खसकिन्नर- असुर आदि का वैर भूल कर प्रसन्न मन किंपुरिसगरुलगन्धव्वमहोरगा से धर्म श्रवण करना । अरहो पायमले पसंतचित्त
माणसा धम्म निसामंति (२५) अण्णउत्थियपावयरिणया वि य अन्य तीर्थ के वादियों का भी भगवान् णमागया वंदंति
के चरणों में आकर वन्दन करना। (२६) आगया समाणा अरहो पाय- वाद के लिए आये हुए प्रतिवादी का
मूले निप्पलिवयणा हवंति निरुत्तर हो जाना। (२७) जो जो वि य णं अरहंतो जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां
भगवन्तो विहरंति तो तो वहां से २५ (पच्चीस) योजन तक ईति वि य र जोयणपणवीसाए रणं नहीं होती।
ईति न भवई (२८) मारी न भवइ
जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां
वहां से २५ योजन तक मारी नहीं होती। (२६) सचक्कं न भवइ
जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां
वहां स्वचक्र का भय नहीं होता। (३०) परचवकं न भवइ जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां
वहां पर-चक्र का भय नहीं होता। (३१) अइवुट्ठी न भवइ
जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां अतिवृष्टि नहीं होती।
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