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(३२) अरणावुट्ठी न भवइ
(३३) दुब्भिक्खं न भवइ
(३४) पुव्वुप्परगा वि य गं उप्पाइया वाही खप्पमिव उवसमंति ।"
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
( १ ) स्वेदरहित तन (२) निर्मल शरीर
( ३ ) दूध की तरह रुधिर का श्वेत
होना
( ४ ) अतिशय रूपवान् शरीर
( ५ ) सुगन्धित तन
·
:
दिगम्बर परम्परा में ३४ अतिशयों का वर्णन इस प्रकार किया गया है : जन्म के १० अतिशय 3 :
२
केवलज्ञान के १० प्रतिशय :
१) भगवान् विचरें वहां-वहां सौसौ कोस तक सुभिक्ष होना ( ईति नहीं होना )
[ तीर्थंकरों की विशेषता
जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां अनावृष्टि नहीं होती। जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां दुर्भिक्ष नहीं होता । जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां पूर्वोत्पन्न उत्पात भी शीघ्र शान्त हो जाते हैं।
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( ६ ) प्रथम उत्तम संहनन ( ७ )
प्रथम उत्तम संस्थान
(
एक हजार आठ (१००८)
लक्षण
८)
( 8 )
(१०)
( २ )
( ३ )
सुत्तागम पृ० ३४५-४६
[ समवायांग, समवाय १११]
पाठान्तर में काला, अगरु आदि से गद्यमद्यायमान रमणीय भू-भाग को उन्नीसवां और तीर्थंकर के दोनों ओर दो यक्षों द्वारा चँवर ढुलाने को बीसवां अतिशय माना है किन्तु वृहद्बाचना में नहीं होने से इन्हें यहां स्वीकार नहीं किया है ।
दूसरे से पाँचवें तक चार अतिशय जन्म के, १६ ( उन्नीस ) देवकृत और ग्यारह केवलज्ञानभावी माने हैं । [ समवायांग वृत्ति ]
नित्यं निःस्वेदत्वं, निर्मलता क्षीरगौररुधिरत्वं च । स्वाद्याकृति संहनने, सोरूप्यं सौरमं च सौलक्ष्यम् ॥ १ ॥
प्रमितवीर्यता च प्रियहित-वादित्वमन्यदमित गुणस्य । प्रथिता दश ख्याता स्वतिशयधर्मा स्वयंभुवोदहस्य || २ || * गव्यूतिशत चतुष्टय - सुभिक्षता- गगन-गमनमप्राणिवधः ।
मुक्त्युपसर्गाभावश्चतुरास्यत्वं च सर्वविद्येश्वरता ॥ ३ ॥ श्रच्छायत्वमपक्ष्म स्पन्दश्च समप्रसिद्ध - नखकेशत्वम् । स्वतिशयगुणाः भगवतो घातिक्षयजाः भवंति तेऽपि दशैव || ४ ||
अमित बल
हित- प्रिय वचन |
आकाश में गमन भगवान् के चरणों में प्राणियों का निर्भय होना
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[ नन्दीश्वर भक्ति ]
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