________________
६६५
केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष] भगवान् महावीर
, एक बार जब इन्द्रभूति राजगृह से भिक्षा लेकर भगवान के पास गणशील उद्यान की ओर आ रहे थे, तो मार्ग में कालोदायी शैलोदायी आदि तैथिक पंचास्तिकाय की चर्चा कर रहे थे । गौतम को देख कर वे पास आये और बोले"गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य ज्ञातपुत्र महावीर धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकायों को प्ररूपणा करते हैं, इसका मर्म क्या है और इन रूपी-अरूपी कार्यों के सम्बन्ध में कैसा क्या समझना चाहिये ? तुम उनके मुख्य शिष्य हो, अतः कुछ स्पष्ट कर सको तो बहुत अच्छा हो।"
गौतम ने संक्षेप में कहा-"हम अस्तित्व में 'नास्तित्व' और 'नास्तित्व' में अस्तित्व नहीं कहते । विशेष इस विषय में तुम स्वयं विचार करो, चिन्तन से रहस्य समझ सकोगे।"
___ गौतम तीथिकों को निरुत्तर कर भगवान के पास आये, पर कालोदायी आदि तीथिकों का इससे समाधान नहीं हुआ। वे गौतम के पीछे-पीछे भगवान् के पास आये । भगवान ने भी प्रसंग पाकर कालोदायी को सम्बोधित कर कहा"कालोदायी ! क्या तुम्हारे साथियों में पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में चर्चा चली?"
कालोदायी ने स्वीकार करते हुए कहा-"हां महाराज ! जब से हमने आपके सिद्धान्त सुने हैं, तब से हम इस पर तर्क-वितर्क किया करते हैं।
भगवान् ने उत्तर में कहा-"कालोदायी ! यह सच है कि इन पंचास्तिकायों पर कोई सो, बैठ या चल नहीं सकता, केवल पुद्गलास्तिकाय ही ऐसा है जिस पर ये क्रियायें हो सकती हैं।
कालोदायी ने फिर पूछा-"भगवन् ! जीवों के दुष्ट-विपाक रूप पापकर्म पुद्गलास्तिकाय में किये जाते हैं या जीवास्तिकाय में ?" .
महावीर ने कहा-"कालोदायी ! पुद्गलास्तिकाय में जीवों के दुष्ट-विपाक रूप पाप नहीं किये जाते, किन्तु वे जीवास्तिकाय में ही किये जाते हैं। पाप ही नहीं सभी प्रकार के कर्म जीवास्तिकाय में ही होते हैं। जड़ होने से अन्य धर्मास्तिकाय आदि कार्यों में कर्म नहीं किये जाते।"
इस प्रकार भगवान् के विस्तृत उत्तरों से कालोदायी की शंका दूर हो गई । उसने भगवान् के चरणों में निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनने की अभिलाषा व्यक्त की। अवसर देख कर भगवान् ने भी उपदेश दिया। उसके फलस्वरूप कालोदायी निर्ग्रन्थ मार्ग में दीक्षित हो कर मुनि बन गया । क्रमश: ग्यारह अंगों का अध्ययन कर वह प्रवचन-रहस्य का कुशल ज्ञाता हुअा।'
१ भग० स०, ७।१०।३०५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org