________________
६६६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उदक पेढाल और गौतम
उदक पेढाल और गौतम राजगृह के ईशान कोण में नालंदा नाम का एक उपनगर था। वहाँ 'लेव' नामक गाथापति निर्ग्रन्थ-प्रवचन का अनुयायी और श्रमणों का बड़ा भक्त था। लेव' ने नालंदा के ईशान कोण में एक शाला का निर्माण करवाया जिसका नाम 'शेष द्रविका' रखा गया। कहा जाता है कि गृहनिर्माण से बचे हुए द्रव्य से वह शाला बनाई गई थी, अतः उसका नाम 'शेष द्रविका' रखा गया। उसके निकटवर्ती 'हस्तियाम' उद्यान में एक समय भगवान् महावीर विराजमान थे। वहाँ पेढ़ालपुत्र 'उदक', जो पार्श्वनाथ परम्परा के श्रमण थे, इन्द्रभूतिगौतम से मिले और उनसे बोले-"आयुष्मन् गौतम ! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।" गौतम की अनुमति पा कर उदक बोले-"कुमार पुत्र श्रमण ! अपने पास नियम लेने वाले उपासक को ऐसी प्रतिज्ञा कराते हैं-'राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ या चोर को बाँधने के अतिरिक्त किसी त्रस जीव की हिंसा नहीं करूंगा।" ऐसा पच्चखाण दुपच्चखाण है, यानी इस तरह के प्रत्याख्यान करना-कराना प्रतिज्ञा में दूषण रूप हैं। क्योंकि संसारी प्राणी स्थावर मर कर त्रस होते और त्रस मर कर स्थावर रूप से भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जो जीव त्रस रूप में प्रघात्य थे, वे ही स्थावर रूप में उत्पन्न होने पर घात-योग्य हो जाते हैं। इसलिये प्रत्याख्यान में इस प्रकार का विशेषण जोड़ना चाहिये कि 'सभूत जीवों की हिसा नहीं करूंगा। भूत विशेषण से यह दोष टल सकता है । हे गौतम ! तुम्हें मेरी यह बात कैसी जंचती है ?"
उत्तर में गौतम ने कहा-"आयुष्मन् उदक ! तुम्हारी बात मेरे ध्यान में ठोक नहीं लगती और मेरी समझ से पूर्वोक्त प्रतिज्ञा कराने वालों को दुपच्चखारण कराने वाला कहना भी उचित नहीं, क्योंकि यह मिथ्या आरोप लगाने के समान है। वास्तव में त्रस और सभूत का एक ही अर्थ है। हम जिसको त्रस कहते हैं, उस ही को तुम त्रसभूत कहते हो। इसलिये त्रस की हिंसा त्यागने वाले को वर्तमान बस पर्याय की हिंसा का त्याग होता है, भूतकाल में चाहे वह स्थावर रूप से रहा हो या बस रूप से, इसकी अपेक्षा नहीं है । पर जो वर्तमान में बस पर्यायधारी है, उन सबकी हिंसा उसके लिये वर्ण्य होती है ।
त्यागी का लक्ष्य वर्तमान पर्याय से है, भूत पर्याय किसी की क्या थी, अथवा भविष्यत् में किसी की क्या पर्याय होने वाली है यह ज्ञानी ही समझ सकते हैं। अतः जो लोग सम्पूर्ण हिसा त्यागरूप श्रामण्य नहीं स्वीकार कर पाते वे मर्यादित प्रतिज्ञा करते हुए कुशल परिणाम के ही पात्र माने जाते हैं। इस प्रकार त्रस हिंसा के त्यागी श्रमणोपासक का स्थावर-पर्याय की हिंसा से व्रत-भंग नहीं होता।" १ सूत्र कृतांग, २।७।७२ सूत्र, (नालंदीयाध्ययन) २ सूत्र कृतांग सू०, २१७, सूत्र ७३-७४ । (नालंदीयाध्ययन)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org