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________________ ६६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष तीथिकों ने कहा- "सूक्ष्म होने से हवा का रूप देखा नहीं जाता।" इस पर मददुक ने पूछा--"गंध के परमाणु, जो घ्राणेन्द्रिय के तीन विषय होते हैं, क्या तुम सब उनका रूप-रंग देखते हो?" "नहीं, गंध के परमाणु भी सूक्ष्म होने से देखे नहीं जाते", तीथिकों ने कहा। ___ मद्दुक ने एक और प्रश्न रखा-"अरणिकाष्ठ में अग्नि रहती है, क्या तुम सब मरणि में रही हुई आग के रंग-रूप को देखते हो? क्या देवलोक में रहे हए रुषों को तुम देख पाते हो? नहीं, तो क्या तुम जिनको नहीं देख सको, वह वस्तु नहीं है ? दृष्टि में प्रत्यक्ष नहीं आने वाली वस्तुओं को यदि अमान्य करोगे तो तुम्हें बहुत से इष्ट पदार्थों का भी निषेध करना होगा। इस प्रकार लोक के अधिकतम भाग और भूतकाल की वंश-परम्परा को भी अमान्य करना होगा।" मद्दुक की युक्तियों से तैथिक अवाक रह गये और उन्हें मदुक की बात माननी पड़ी। अन्य तीथियों को निरुत्तर कर जब मद्दुक भगवान् की सेवा में पहुंचा तब प्रभु ने मद्दुक के उत्तरों का समर्थन करते हुए उसकी शासन-प्रीति का अनुमोदन किया। ज्ञातृपुत्र भ० महावीर के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर मदुक बहुत प्रसन्न हुआ और ज्ञानचर्चा कर अपने स्थान की ओर लौट गया । गौतम को मद्दुक श्रावक की योग्यता देखकर जिज्ञासा हुई और उन्होंने प्रभु से पूछा-"प्रभो! क्या मदुक श्रावक आगार-धर्म से अनगार-धर्म ग्रहण करेगा? क्या यह आपका श्रमण शिष्य होगा ?" प्रभु ने कहा-"गौतम ! मद्दुक प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। यह गृहस्थधर्म में रह कर ही देश-धर्म की आराधना करेगा और अन्तिम समय समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर 'अरुणाभ' विमान में देव होगा और फिर मनुष्य भव में संयमधर्म की साधना कर सिद्ध, बुद्ध मुक्त होगा।" तत्पश्चात विविध क्षेत्रों में धर्मोपदेश देते हए अन्त में राजगह में ही भगवान् ने वर्षाकाल व्यतीत किया । प्रभु के विराजने से लोगों का बड़ा उपकार हुआ। . केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष राजगृह से विहार कर भगवान् हेमन्त ऋतु में विभिन्न स्थानों में विचरण करते एवं धर्मोपदेश देते हुए पुनः राजगृह पधारे तथा गुणशील चैत्य में विराजमान हुए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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