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धर्मनायक तीर्थंकर मानव के अन्तर्मन में सोई हुई आत्मशक्ति को जागृत करते और उसे विश्वास दिलाते हैं कि मानव ! तू ही अपने सुख-दुःख का निर्माता है, बाहर में किसी को शत्रु या मित्र समझकर व्यर्थ के रागद्वेष से आकुल-व्याकुल मत बन।
ऐसे धर्मोत्तम महापुरुष तीर्थंकरों का प्राचीन ग्रन्थों के आधार से यहाँ परिचय दिया गया है अतः इस ग्रन्थ का नाम 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' रखा गया
इतिहास का मूलाधार
यों तो इतिहास-लेखन में प्रायः सभी प्राचीन ग्रन्थ आधारभूत होते हैं पर उन सबका मूलभूत आधार दृष्टिवाद है। दृष्टिवाद के पाँच भेदों में से चौथा अनुयोग है, जिसे वस्तुतः जैन धर्म के इतिहास का मूल स्रोत या उद्भव स्थान कहा जा सकता है। समवायांग और नन्दीसूत्र में उल्लिखित हुण्डी के अनुसार प्रथमानुयोग में (१) तीर्थंकरों के पूर्वभव, (२) देवलोक में उत्पत्ति, (३) आयु, (४) च्यवन, (५) जन्म, (६) अभिषेक, (७) राज्यश्री, (८) मुनिदीक्षा, (९) उग्रतप, (१०) केवल ज्ञानोत्पत्ति, (११) प्रथम प्रवचन, (१२) शिष्य, (१३) गण और गणधर, (१४) आर्याप्रवर्तिनी, (१५) चतुर्विध संघ का परिमाण, (१६) केवलज्ञानी, (१७) मनःपर्यवज्ञानी, (१८) अवधिज्ञानी, (१९) समस्त श्रुतज्ञानी-द्वादशांगी, (२०) वादी, (२१) अनुत्तरोपपात वाले, (२२) उत्तरवैक्रिय वाले, (२३) सिद्धगति को प्राप्त होने वाले, (२४) जैसे सिद्धि मार्ग बतलाया और (२५) पादोपगमन में जितने भक्त का तप कर अन्तक्रिया की, उसका वर्णन किया है।
इसी प्रकार के अन्य भी अनेक भाव आबद्ध होने का उल्लेख प्राप्त होता
मूल प्रथमानुयोग की तरह गण्डिकानुयोग में कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, दशाह, बलदेव, वासुदेव, गणधर और भद्रबाहु गण्डिका का विचार है। उसमें हरिवंश तथा उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणीकाल का चित्रण भी किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अनुयोग रूप दृष्टिवाद में इतिहास का सम्पूर्ण मूल बीज निहित कर दिया गया था।
इन उपरोक्त उल्लेखों से निर्विवाद रूप से यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म का सम्पूर्ण, सर्वांगपूर्ण और प्रामाणिक इतिहास बारहवें अंग दृष्टिवाद में विद्यमान था। ऐसी दशा में डॉ. हर्मन, जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वानों का यह अभिमत कि रामायण की कथा जैनों के मूल आगम में नहीं है, वह वाल्मिकीय रामायण अथवा अन्य हिन्दू ग्रन्थों से उधार ली गई है- नितान्त भ्रान्तिपूर्ण एवं निराधार सिद्ध होता है।
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