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विकास मनुष्य आदि धार्मिक जीवों में ही होता है क्योंकि धर्म बिना धर्मी अर्थात् गुणी के नहीं होता। अतः धार्मिक मानवों का इतिहास ही धर्म का इतिहास है । धार्मिक पुरुषों में आचार-विचार, उनके देश में प्रचार एवं प्रसार तथा विस्तार का इतिवृत्त ही धर्म का इतिहास है।
सम्यक विचार और सम्यक् आचार से रागादि दोषों को जीतने का मार्ग ही जैन धर्म है। वह किसी जाति या देश - विशेष का नहीं, वह तो मानवमात्र के लिए शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग है। धर्म का अस्तित्व कब से है ? इसके उत्तर में शास्त्राकारों ने बतलाया है कि जैसे पचास्तिकायात्मक लोक सदा काल से है, उसी प्रकार आचारांग आदि द्वादशांगी गणिपिटक रूप सम्यक् श्रुत् भी अनादि हैं।
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भारतवर्ष जैसे क्षेत्र एवं धर्म को मानने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा से भोगयुग के पश्चात् धर्म का आदिकाल और अवसर्पिणी के दुःषमकाल के अन्त में धर्म का विच्छेद होने से इसका अन्तकाल भी कहा जा सकता है। इस उद्भव और अवसान के मध्य की अवधि का धार्मिक इतिवृत्त ही धर्म का पूर्ण इतिहास है ।
प्रस्तुत इतिहास भारतवर्ष और इस अवसर्पिणीकाल की दृष्टि से है। अवसर्पिणीकाल के तृतीय आरक के अन्त में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव हुए और उन्हीं से देश में विधिपूर्वक श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का प्रादुर्भाव हुआ अतः क्षेत्र तथा काल की दृष्टि से यही जैन धर्म का आदिकाल कहा गया है। देश के अन्यान्य धार्मिक सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने धर्म को प्राचीन बतलाने का प्रयत्न किया है पर जैन संघ की तरह अन्यत्र कहीं भी धर्म के आदिकाल से लेकर उनके प्रचार, प्रसार एवं विस्तार की आचार्य - परम्परा का क्रमबद्ध निर्देश नहीं मिलता । प्रायः वहाँ राज्य-परम्परा का ही प्रमुखता से उल्लेख मिलता है।
ग्रन्थ का नामकरण
जैन शास्त्रों के अनुसार इस अवसर्पिणीकाल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव — ये ६३ उत्तम पुरुष हुए हैं। प्रकृति के सहज नियमानुसार मानव समाज के शारीरिक, मानसिक आदि ऐहिक और आध्यात्मिक संरक्षण, संगोपन तथा संवर्द्धन के लिए लोकनायक एवं धर्मनायक दोनों का नेतृत्व आवश्यक माना गया है।
चक्री या अर्द्धचक्री, जहाँ मानव समाज में व्याप्त संघर्ष और पापाचार का दण्डभय से दमन करते एवं जनता को नीति-मार्ग पर आरूढ़ करते हैं, वहाँ धर्मनायक - तीर्थंकर धर्मतीर्थ की स्थापना करके उपदेशों द्वारा लोगों का हृदय परिवर्तन करते हुए जन-जन के मन में पाप के प्रति घृणा उत्पन्न करते हैं । दण्ड-नीति से दोषों का दमन मात्र होता है पर धर्म-नीति ज्ञानामृत से दोषों को सदा के लिए केवल शान्त ही नहीं करती अपितु दोषों के प्रादुर्भाव के द्वारों को अवरूद्ध करती है।
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