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________________ पोर साधना भगवान् ऋषभदेव उसको सभी प्रकार की सुविधाएं दूंगा।" यह घोषणा सुन कर सैकड़ों लोग उसके साथ व्यापार के लिए चल पड़े। प्राचार्य धर्मघोष को भी वसंतपुर जाना था। उन्होंने निर्जन अटवी पार करने के लिए सहज प्राप्त इस संयोग को अनुकूल समझा और अपनी शिष्यमंडली सहित धन्ना सेठ के साथ हो लिए। सेठ ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए अनुचरों को आदेश दिया कि प्राचार्य के भोजनादि का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय । आचार्य ने बताया कि श्रमणों को अपने लिए बनाया हुआ आधाकर्मी और प्रौद्देशिक आदि दोषयुक्त आहार निषिद्ध है। उसी समय एक अनुचर आम्रफल लेकर आया। सेठ ने आचार्य से आम्रफल ग्रहण करने की प्रार्थना की तो पता चला कि श्रमणों के लिए फल-फूल आदि हरे पदार्थ भी अग्राह्य हैं। श्रमणों की इस कठोर चर्या को सुन कर सेठ का हृदय भक्ति से प्राप्लावित और मस्तक श्रद्धावनत हो गया। सार्थवाह के साथ आचार्य भी पथ को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। तदनन्तर वर्षा का समय आया और उमड़-घुमड़ कर घनघोर घटाएं बरसने लगीं। सार्थवाह ने वर्षा के कारण मार्ग में पंक व पानी आदि की प्रतिकूलता देख कर जंगल में ही एक सुरक्षित स्थान पर वर्षावास बिताने का निश्चय किया। प्राचार्य धर्मघोष भी वहीं पर एक अन्य निर्दोष स्थान पर ठहर गये। संभावना से अधिक समय तक जंगल में रुकने के कारण सार्थ की सम्पूर्ण खाद्य सामग्री समाप्त हो गई, लोग वन के फल, मूल, कन्दादि से जीवन बिताने लगे। ज्यों ही वर्षा की समाप्ति हुई कि सेठ को अकस्मात् आचार्य की स्मृति हो प्राई। उसने सोचा, आचार्य धर्मघोष भी हमारे साथ थे। मैंने अब तक उनकी कोई सुधि नहीं ली। इस प्रकार पश्चाताप करते हुए वह शीघ्र प्राचार्य के पास गया और आहार की अभ्यर्थना करने लगा। प्राचार्य ने उसको श्रमरण-आचार की मर्यादा समझाई । विधि-अविधि का ज्ञान प्राप्त कर सेठ ने भी परम उल्लासभाव से मुनि को विपुल घृत का दान दिया। उत्तम पात्र, श्रेष्ठ द्रव्य और उच्च अध्यवसाय के कारण उसको वहां सम्यग्दर्शन की प्रथम बार उपलब्धि हई, अतः पहले के अनन्त भवों को छोड़ कर यहीं से ऋषभदेव का प्रथम भव गिना गया है। ऋषभदेव के अन्तिम तेरह भवों में यह प्रथम भव है। धन्ना सार्थवाह के भव से निकल कर देव तथा मनुष्य के विविध भव करते हुए आप सुविधि वैद्य के यहाँ पुत्र रूप से उत्पन्न हुए। यह ऋषभदेव का नवमां भव था । इनका नाम जीवानन्द रखा गया। जीवानन्द के चार अन्तरंग मित्र थे, पहला राजपुत्र महीधर, दूसरा श्रेष्ठि-पुत्र, तीसरा मंत्री-पुत्र और चौथा सार्थवाह-पुत्र । एक बार जब वह अपने साथियों के साथ घर में वार्तालाप कर रहा था, उस समय उसके यहाँ एक दीर्घ-तपस्वी मुनि भिक्षार्थ पधारे। प्रतिकूल आहार-विहारादि कारणों से मुनि के शरीर में कृमिकुष्ठ की व्याधि उत्पन्न हो गई थी। राजपुत्र महीधर ने मुनि की कुष्ठ के कारण विपन्न स्थिति को देख कर जीवानन्द से कहा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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