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________________ १० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव के पूर्वभव अप्पुव्वनाण गहणे, सुयभत्ती पवयणे पहावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो।' । अर्थात् (१) अरिहंत की भक्ति, (२) सिद्ध की भक्ति, (३) प्रवचन की भक्ति, (४) गुरु, (५) स्थविर, (६) बहुश्रुत और (७) तपस्वी मुनि की भक्तिसेवा करना, (८) निरंतर ज्ञान में उपयोग रखना, (६) निर्दोष सम्यक्त्व का पालन करना, (१०) गुणवानों का विनय करना, (११) विधिपूर्वक षड़ावश्यक करना, (१२) शोल और व्रत का निर्दोष पालन करना, (१३) वैराग्यभाव की वृद्धि करना, (१४) शक्तिपूर्वक तप और त्याग करना, (१५) चतुर्विध संघ को समाधि उत्पन्न करना, (१६) व्रतियों की सेवा करना, (१७) अपूर्वज्ञान का अभ्यास, (१८) वीतराग के वचनों पर श्रद्धा करना, (१६) सुपात्र दान करना और (२०) जिन-शासन की प्रभावना करना) सब के लिए यह आवश्यक नहीं है कि बीसों ही बोलों की प्राराधना की जाय, कोई एक दो बोल की उत्कृष्ट साधना एवं अध्यवसायों की उच्चता से भी तीर्थंकर बनने की योग्यता पा लेते हैं। महापुराण में तीर्थकर बनने के लिए षोडश कारण भावनाओं का आराधन आवश्यक बतलाया गया है। उनमें दर्शन-विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता को प्राथमिकता दी है; जब कि ज्ञाताधर्म कथा में अर्हद्भक्ति आदि से पहले विनय को। इनमें सिद्ध, स्थविर और तपस्वी के बोल नहीं हैं, उन सबका अन्तर्भाव षोडश-कारण भावनाओं में हो जाता है। अत: संख्या-भेद होते हुए भी मूल वस्तु में भेद नहीं है। तत्वार्थ सूत्र में षोडश कारण भावना इस प्रकार है : "दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्षणं ज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी, संघ-साधु-समाधिर्वयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य" । भगवान् ऋषभदेव के जीव ने कहां किस भव में इन बोलों की आराधना कर तीर्थकर गोत्र कर्म का उपार्जन किया, इसको समझने के लिए उनके पूर्व भवों का परिचय आवश्यक है, जो इस प्रकार है : भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भव और साधना भगवान् ऋषभदेव का जोव एक बार महाविदेह के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्ना नामक सार्थवाह के रूप में उत्पन्न हुआ। उसके पास विपुल सम्पदा थी, दूरदूर के देशों में उसका व्यापार चलता था। एक बार उसने यह घोषणा करवाई - "जिम किमी को अर्थोपार्जन के लिए विदेश चलना हो, वह मेरे साथ चले। मैं ' प्राव. नि० १७६-७८-ज्ञाता० घ. क.८ २ तत्त्वार्थ सूत्र ६-२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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