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भगवान् ऋषभदेव तीर्थकर पद प्राप्ति के साधन
भगवान् ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्मनायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे' और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों की व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ । आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है कि श्रात्मा त्रिकाल सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान की सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देख कर हम उनकी बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं । उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव के महा महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं ।
A (जब साधारण पुण्य फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्रिलोक पूज्य तीर्थंकर पद जैसी विशिष्ट पुण्य प्रकृति सहज ही किसी को कैसे प्राप्त हो सकती है ? उसके लिए बड़ी तपस्या, भक्ति और साधना की जाय, तब कहीं उसकी उपलब्धि हो सकती है । जैनागम ज्ञाताधर्म कथा में तीर्थंकर गोत्र के उपार्जन के लिए वैसे बीस स्थानों का आराधन आवश्यक कारणभूत माना गया है, जो इस प्रकार है
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'इमेहि य णं बीसाए कारणेहि आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयर नाम गोयं कम्मं निर्वात्तसु, तं जहा :
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अरहंत सिद्ध पवयरण, गुरु थेर बहुस्सुए तवस्तिसु । वच्छलयाय एसि, अभिक्खनाणोवोगे य ॥ दंसण विre प्रवस्सए य सीलव्वए निरइयारो । खरणलव तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ॥
(क) सुसम दुस्समाए ततियाएवि बहुवितिक्कंताए चउरासीए पुव्वसयसहस्सेहि सेसहि एगूणउइएय पक्खेहि सेसएहि प्रासाढबहुलपक्खे चउत्थीए उत्तरासाढाजोगजुत्ते मियंके विरणीयाए भूमिए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छिसि गरभत्ताए उववन्नो । [ श्रावश्यक चूरिंग (जिनदास) पूर्व भाग, पृ० १३५]
(ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
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