SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव के पूर्वभव मित्र ! तुम सब लोगों की चिकित्सा करते हो, पर खेद की बात है कि इन तपस्वी मुनि की भीषण व्याधि को देखकर भी तुम कुछ करने को तत्पर नहीं हो रहे हो। उत्तर में जीवानन्द ने कहा, भाई! तुम्हारा कथन सत्य है पर. इस रोग की चिकित्सा के लिए मुझे जिन वस्तुमों की आवश्यकता है, उनके अभाव में मैं इस दिशा में कर ही क्या सकता है? मित्र के पूछने पर जीवानन्द ने बतलाया कि मुनि की चिकित्सा के लिए रत्नकम्बल, गौशीर्ष चन्दन और लक्ष पाक तेल, ये तीन वस्तुएं आवश्यक हैं । लक्ष पाक तेल तो मेरे पास है पर अन्य दो वस्तुएं मेरे पास नहीं हैं । ये दोनों वस्तुएं प्राप्त हो जायं तो मुनि की चिकित्सा हो सकती है। यह सुन कर महीधर ने अपने चारों मित्रों के साथ उसी समय अभीष्ट वस्तुएं उपलब्ध करने की इच्छा से बाजार की ओर प्रस्थान कर दिया और नगर के एक बड़े व्यापारी के यहाँ पहंच कर रस्नकम्बल और गौशीर्ष चन्दन की गवेषणा की। व्यापारी ने इन तरुणों को इन दोनों वस्तुओं का मूल्य एक-एक लाख मोहरें बताया और पूछा कि इन दोनों वस्तुओं की किनके लिए प्रावश्यकता है? उन लोगों के इस उत्तर से कि कुष्ठ-रोग-पीड़ित तपस्वी मुनि की चिकित्सा के लिए उन्हें इन दो बहुमूल्य वस्तुओं की आवश्यकता है, वह सेठ बड़ा प्रभावित हुआ और सोचने लगा कि जब इन बालकों के मन में मुनि के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा है तो क्या मैं स्वयं इस सेवा का लाभ नहीं ले सकता ? मुनि के लिए बिना कुछ लिए ही दवा देना उचित है, यह सोच कर उसने बिना मूल्य लिए ही वे दोनों वस्तुएं दे दी। वैद्य जीवानन्द और उसके साथी तीनों आवश्यक औषधियां लेकर साधु के पास उद्यान में गये, जहाँ कि मुनि ध्यानावस्थित थे। वैद्य-पुत्र जीवानन्द ने वन्दन कर मुनि के शरीर पर पहले तेल का मर्दन किया। जब तेल रोम-कृपों से शरीर में समा गया तो तेल के अन्दर पहुंचते ही कुष्ठकृमि कुलबुला कर बाहर निकलने लगे। तदनन्तर वैद्यपुत्र ने रत्नकम्बल से साधु के शरीर को ढक दिया और सारे कीड़े शीतल रत्नकम्बल में मा गये। इस पर वैद्य जीवानन्द ने कम्बल को किसी पशु के मृत कलेवर पर रख दिया जिससे वे सब कीट उस कलेवर में समा गये। फिर जीवानन्द ने मुनि के शरीर पर गौशीर्ष चन्दन का लेप किया। इस प्रकार तीन बार मालिश करके जीवानन्द ने अपने चिकित्सा कौशल से उन मुनि को पूर्णरूपेण रोग से मुक्त कर दिया।' मुनि की इस प्रकार निस्पृह एवं श्रद्धा-भक्तिपूर्ण सेवा से जीवानन्द आदि मित्रों ने महान् पुण्य-लाभ किया। मुनि को पूर्ण रूप से स्वस्थ देख कर उनका अन्तर्मन गद्गद् हो गया। जीवानन्द ने मुनि से ध्यानान्तराय के लिए क्षमा याचना की। मुनि ने उनको त्याग विरागपूर्ण उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर जीवानन्द ने अपने चारों मित्रों के साथ श्रावकधर्म ग्रहण किया। तदनन्तर श्रमणधर्म की विधिवत् आराधना कर, प्रायु पूर्ण होने पर पांचों मित्र अच्युतकल्प नामक बारहवें स्वर्ग में देव पद के अधिकारी बने । १ प्रावश्यक मलय वृत्ति, पृ० १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy