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और साधना]
भगवान् ऋषभदेव जोवानन्द ने अपनी विशिष्ट शुभ साधना के फलस्वरूप देवलोक की आयु पूर्ण कर पुष्कलावती विजय में महाराज वज्रसेन की रानी धारिणी के यहाँ पुत्र रूप से जन्म ग्रहण किया। गर्भ-काल में माता ने चौदह महा-स्वप्न देखे । महाराज वज्रसेन ने अपने उस पुत्र का नाम वज्रनाभ रखा, जो आगे चल कर षट्खण्ड राज्य का अधिकारी चक्रवर्ती बना । जीवानन्द के अन्य चार मित्र बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ के नाम से सहोदर भाई के रूप में उत्पन्न हुए । वज्रनाभ ने पूर्व जन्म की मुनि सेवा के फलस्वरूप चक्रवर्ती का पद प्राप्त किया और अन्य भाई माण्डलिक राजा हुए। इनके पिता तीर्थकर वज्रसेन ने जब : केवली होकर देशना प्रारम्भ की तब पूर्वजन्म के संस्कारवश चक्रवर्ती वज्रनाभ भी वैराग्यभाव में रंग कर दीक्षित हो गये। चिर काल तक संयम-धर्म की साधना करते हुए उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की और अर्हद्भक्ति प्रादि बीसों ही स्थानों की सम्यक अाराधना कर उसी जन्म में तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त में संलेखना और समाधिपूर्वक प्राय पूर्ण कर मुनि वज्रनाभ सर्वार्थ सिद्ध नामक अनूतर विमान में अहमिन्द्र देव हुआ।
जन्म वज्रनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान में अपने देवभव की ३३ सागर की स्थिति पूर्ण होने पर प्राषाढ कृष्णा चतुर्थी को' सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत हो उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में माता मरुदेवी को कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ !
सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन कर जिस समय भगवान ऋषभदेव का जीव मरुदेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ, उस रात्रि के पिछले भाग में माता मरुदेवी ने निम्नलिखित चौदह शुभ स्वप्न देखे :(१) गज,
(६) चन्द्र, (११) क्षीर समुद्र, (२) वृषभ, (७) सूर्य, (१२) विमान, (३) सिंह,
(८) ध्वजा, (१३) रत्नराशि और (४) लक्ष्मी , (8) कुंभ, (१४) निर्धूम अग्नि ।' (५) पुष्पमाला, (१०) पद्मसरोवर,
कल्पसूत्र में उल्लिखित गाथा में विमान के साथ नाम 'भवन' भी दिया है। इसका भाव यह है कि तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जित किये हए जो जीव नरक भूमि से आते हैं, उनकी माता भवन का स्वप्न देखती है और देवलोक से आने वालों की माता विमान का शुभ-स्वप्न देखती है । संख्या की दृष्टि से तीर्थंकर
' उववातो सम्वट्ठे सम्वेसिं पढमतो चुतो उसभो।
रिक्खेण असाढाहिं, असाढ बहुले चउत्थिए ॥ (मावश्यक नियुक्ति गा० १८२) २ गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम ससि-दियरं-झयं-कुम्भ ।
पउमसर, सागर, विमाण-भवण-रयणुच्चय सिहिं च ॥ (कल्पसूत्र, सू० ३३)
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