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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [म. ऋषम का जन्मकाम और चक्रवर्ती की माताएं समान रूप से चौदह स्वप्न ही देखती हैं। दिगम्बर परम्परा में सोलह स्वप्न देखना बतलाया है।'
यहां यह स्मरणीय है कि-अन्य सब तीर्थंकरों की माताएं प्रथम स्वप्न में हाथी को मुख में प्रवेश करते हुये देखती हैं, जब कि मरुदेवी ने प्रथम स्वप्न में बृषभ को अपने मुख में प्रवेश करते हुये देखा। ____स्वप्नदर्शन के पश्चात् जागृत होकर मरुदेवी महाराज नाभि के पास माई और उसने विनम्र, मृदु एवं मनोहर वाणी में स्वप्नदर्शन सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त नाभि कुलकर से कह सुनाया। उस समय स्वप्न-पाठक नहीं थे, अतः स्वयं महाराज नाभि ने औत्पातिकी बुद्धि से स्वप्नों का फल सुनाया। गर्भकाल सानन्द पूर्ण कर चैत्र कृष्णा अष्टमी को, उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में माता मरुदेवी ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। कहीं-कहीं अष्टमी के बदले नवमी को जन्म होना लिखा गया है । संभव है उदय तिथि, अस्ततिथि की दृष्टि से ऐसा तिथिभेद लिखा गया हो।
भगवान् ऋषभ का जन्मकाल जब दो कोडाकोड़ी सागर की स्थिति वाले तृतीय आरक के समाप्त होने में ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष रहे थे, उस समय भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ।
X वैदिक परम्परा के धर्मग्रन्थ 'श्रीमद्भागवत' में भी प्रथम मनु स्वायंभुव के मन्वन्तर में ही उनके वंशज अग्नीध्र से नाभि और नाभि से ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है । इस प्रकार वैदिक परम्परा के धर्मग्रन्थों में भी लगभग जैन परम्परा के आगमों के समान ही रघुकुल तिलक श्री पुरुषोत्तम राम ही नहीं अपितु उनके पूर्वपुरुष सगर आदि से भी सुदीर्घ समयावधि पूर्व भगवान् ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है।
जिस समय भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुमा, उस समय सभी दिशायें शान्त थीं। प्रभु का जन्म होते ही सम्पूर्ण लोक में उद्योत हो गया। क्षण भर के लिये नारक भूमि के जीवों को भी विश्रान्ति प्राप्त हुई।
___ जन्माभिषेक और जन्ममहोत्सव ससुरासुर-नर-नरेन्द्रों, देवेन्द्रों एवं मसुरेन्द्रों द्वारा वन्दित, त्रिलोकपूज्य, संसार के सर्वोत्कृष्ट पद तीर्थकर पद की पुण्य प्रकृतियों का बन्ध किये हुए महान् 'माचार्य जिनसेन ने मत्स्य-युगल मौर सिंहासन ये दो स्वप्न बढ़ा कर सोलह स्वप्न _बतलाये हैं। (महापुराण पर्व १२, पृ० १०३-१२०) २ चैत बहुलट्ठमीए जातो उसमो भाषाढ नक्कते।।
(मावश्यक नियुक्ति गा० १०४ व कल्पसूत्र, सू० १९३) ३ चैत्रे मास्यसिते पक्षे, नवम्यामुदये रखेः। (महापुराण, जिनसेन, सर्ग १३, श्लो. २-३)
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