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जन्माभिषेक और महो० ]
भगवान् ऋषभदेव
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पुण्यात्मा जब जन्म ग्रहरण करते हैं, उस समय ५६ दिक्कुमारियों और ६४ ( चौसठ ) देवेन्द्रों के प्रासन प्रकम्पित होते हैं । अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा जब उन्हें विदित होता है कि तीर्थंकर का जन्म हो गया है, तो वे सब अनादिकाल से परम्परागत दिशाकुमारिकाओं और देवेन्द्रों के जीताचार के अनुसार अपनी अद्भुत दिव्य देव ऋद्धि के साथ अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार तीर्थंकर के जन्मगृह तथा मेरुपर्वत और नन्दीश्वर द्वीप में उपस्थित हो बड़े ही हर्षोल्लास पूर्वक जन्माभिषेक आदि के रूप में तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव मनाते हैं । यह संसार का एक अनादि अनन्त शाश्वत नियम है ।
इसी शाश्वत नियम के अनुसार जब भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ तो तत्क्षण ५६ महत्तरिका दिशाकुमारियों एवं चौसठ इन्द्रों के आसन चलायमान हुये । सर्वप्रथम उन्होंने सिंहासन से उठ प्रभु जिस दिशा में विराजमान थे उस ★ दिशा में उत्तरासंग किये सात-आठ कदम आगे जा प्रभु को प्रणाम किया । तत्पश्चात् वे सब अपनी अद्भुत देवद्धि के साथ प्रभु ऋषभ का जन्माभिषेक एवं जन्मोत्सव मनाने के लिए प्रस्थित हुए ।
सर्वप्रथम अधोलोक में रहने वाली भोगंकरा आदि आठ दिशाकुमारियां अपने विशाल परिवार के साथ नाभि कुलकर के भवन में, प्रभु के जन्मगृह में उपस्थित हुईं। उन्होंने माता मरुदेवी और नवजात प्रभु ऋषभ को वन्दन नमन करने के पश्चात् उनकी स्तुति की। तदुपरान्त उन्होंने माता मरुदेवी को अपना परिचय देते हुए प्रति विनम्र एवं मधुर स्वर में निवेदन किया- 'हे त्रिभुवनप्रदीप तीर्थंकर को जन्म देने वाली मातेश्वरी ! हम अधोलोक में रहने वाली दिक्कु -- मारिकाएं हैं। हम यहाँ इन त्रिभुवनतिलक तीर्थंकर भगवान् का जन्म महोत्सव करने आई हैं । अतः आप अपने मन में किंचित्मात्र भी आशंका अथवा भय को अवकाश मत देना ।
माता मरुदेवी को इस प्रकार आश्वस्त कर उन्होंने रजकरण, तृण, धूलि, दुरभिगन्ध आदि को दूर कर जन्मगृह और उसके चारों ओर एक योजन की परिधि में समस्त वातावरण को सुरभिगंध से प्रोतप्रोत कर देने वाले वायु की विकुर्वणा द्वारा उस एक योजन मण्डल की भूमि को स्वच्छ सुरम्य एवं सुगन्धित बना दिया । किंकरियों के समान यह सब कार्य निष्ठापूर्वक सम्पन्न करने के पश्चात् वे प्राठों महत्तरिका दिक्कुमारियां अपने विशाल देवी समूह के साथ गीत गाती हुई मां मरुदेवी के चारों ओर खड़ी हो गईं ।
उसी समय ऊर्ध्वलोक में रहने वाली मेघंकरा आदि आठ दिवकुमारियां अपने देव देवी समूह के साथ जन्मगृह में प्राईं। माता पुत्र को वन्दन- नमनस्तवन आदि के पश्चात् उन्होंने सुगन्धित जलकरणों की वृष्टि और दिव्य धूप की सुगन्ध से जन्मगृह के एक योजन के परिमण्डल को देवागमन योग्य सुमनोज्ञसुरम्य बना दिया । तत्पश्चात् वे विशिष्टतर मंगल गीत गाती हुईं मातृमन्दिर में माता मरुदेवी के चारों ओर खड़ी हो गईं ।
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