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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विविध ग्रन्थों में पूर्वभव मुनि सुवर्णबाहु ने कायोत्सर्ग पूर्ण किया और अपनी प्रायु निकट समझ कर संलेखनापूर्वक अनशन कर वे ध्यानावस्थित हो गये।
सिंह ने पूर्वभव के वैर के कारण मुनि पर माक्रमण किया और उनके शरीर को चीरने लगा, पर मुनि सर्वथा शान्त और प्रचल रहे । समभाव के साथ मायु पूर्ण कर वे महाप्रभ नाम के विमान में बीस सागर की स्थिति वाले देव हुए।
_ सिंह भी मर कर चौथी नभमि में दश सांगर की स्थिति वाले नारकजीव के रूप में उत्पन्न हम्रा । नारकीय प्राय पूर्ण करने के पश्चात् कमठ का जीव दीर्घकाल तक तिर्यग् योनि में अनेक प्रकार के कष्ट भोगता रहा।
विविध ग्रन्थों में पूर्वभव पद्मचरित्र के अनुसार पार्श्वनाथ की पूर्वजन्म की नगरी का नाम साकेता और पूर्वभव का नाम आनन्द था और उनके पिता का नाम वीतशोक डामर था । रविसेन ने पार्श्वनाथ को वैजयन्त स्वर्ग से अवतरित माना है, जबकि तिलोयपण्णत्ती और कल्पसूत्र में पार्श्वनाथ के प्राणत कल्प से माने का उल्लेख था।
जिनसेन का आदि पुराण और गुणभद्र का उत्तर पुराण पद्मचरित्र के पश्चात् की रचनाएँ हैं।
उत्तरपुराण और पासनाह चरिउं में पार्श्वनाथ के पूर्वभव का वर्णन प्रायः समान है।
प्राचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और लक्ष्मी वल्लभ की उत्तराध्ययन सूत्र की टीका के तेईसवें अध्ययन में भी पूर्वभवों का वर्णन प्राप्त होता है।
पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों द्वारा पार्श्वनाथ की जीवनगाथा स्वतन्त्र प्रबन्ध के रूप में भी प्रथित की गई है । श्वेताम्बर परम्परा में पहले पहल श्री देवभद्र सूरि ने 'सिरि पासनाह चरिउं' के नाम से एक स्वतन्त्र प्रबन्ध लिखा है। उसमें निर्दिष्ट पूर्वभवों का वर्णन प्रायः वही है जो गणभद्र के उत्तर पुराण में उल्लिखित है। केवल परम्परा की दृष्टि से कुछ स्थलों में भिन्नता पाई जाती है, जो श्वेताम्बर परम्परा के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी स्वीकृत है। देवभद्र सरि के अनुसार मरुभूति अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् खिन्नमन रहने लगे एवं हरिश्चन्द्र नामक मुनि के द्वारा दिये गये. उपदेश का अनुसरण करके अपने घरबार, यहाँ तक कि अपनी पत्नी के प्रति भी वे सर्वथा उदासीन रहने लगे। इसके
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