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जन्म और मातापिता]
भगवान् श्री पाश्र्धनाथ
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SHANAMAVASHIKARIMINAR.
परिणामस्वरूप उनकी पत्नी वसुन्धरी का कमठ नामक किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण हो गया । कमठ और अपनी पत्नी के पापाचरण की कहानी मरुभूति को कमठ की पत्नी वरुणा से ज्ञात हुई । मरुभूति ने इसकी सचाई को जानने के लिये नगर के बाहर जाने का ढोंग किया। रात्रि में याचक के वेष में लौटकर उसी स्थान पर ठहरने की अनुमति पा ली । वहाँ उसने कमठ और वसुन्धरी को मिलते देखा।
जन्म और मातापिता चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वर्णबाहु का जीव प्राणत देवलोक से बीस सागर की स्थिति भोग कर च्युत हुप्रा और भारतवर्ष की प्रसिद्ध नगरी वाराणसी के महाराज अश्वसेन की महारानी वामा की कुक्षि में मध्यरात्रि के समय गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । माता वामादेवी चौदह शुभ-स्वप्नों को मुख में प्रवेश करते देखकर परम प्रसन्न हुई और पुत्र-रत्न की सुरक्षा के लिए सावधानीपूर्वक गर्भ का धारण-पालन करती रही । गर्भकाल के पूर्ण होने पर पौष कृष्णा दशमी के दिन मध्यरात्रि के समय विशाखा नक्षत्र से चन्द्र का योग होने पर प्रारोग्ययुक्त माता ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। तिलोयपन्नत्ती में भगवान नेमिनाथ के जन्मकाल से ८४ हजार छह सौ ५० वर्ष बीतने पर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लिखा है। प्रभु के जन्म से घर-घर में प्रामोद-प्रमोद का मंगलमय वातावरण प्रसरित हुआ और क्षणभर के लिए समग्र लोक में उद्योत हो गया।
___ समवायांग और प्रावश्यक नियुक्ति में पार्श्व के पिता का नाम प्राससेण (अश्वसेन) तथा माता का नाम वामा लिखा है। उत्तरकालीन अनेक ग्रन्थकारों ने भी यही नाम स्वीकृत किये हैं। .
प्राचार्य गुणभद्र और पुष्पदन्त ने (उत्तरपुराण और महापुराण में) पिता का नाम विश्वसेन और माता का नाम ब्राह्मी लिखा है । वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित्र में माता का नाम ब्रह्मदत्ता लिखा है। तिलोयपन्नत्ती में पार्श्व की माता का नाम मिला भी दिया है । अश्वसेन का पर्यायवाची हयसेन नाम भी मिलता है। मौलिक रूप से देखा जाय तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । गण, प्रभाव और बोलचाल की दृष्टि से व्यक्ति के नाम में भिन्नता होना माश्चर्य की बात नहीं है। १ पासनाह चरित्रं, पद्यकीर्ति विरचित, प्रस्तावना, पृष्ठ ३१ २ उत्तरपुराण में दशमी के स्थान पर एकादशी को विशाखा नक्षत्र में जन्म माना गया है। ३ पण्णासाधियधस्सयचुलसीविसहस्स-वस्सपरिवते।
णेमि जिणुत्पत्तीदो, उप्पत्ती पासणाहस्स । ति. प., ४१५७६।पृ. २१४
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