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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[वंश एवं कुल
वंश एवं कुल भगवान् पार्श्वनाथ के कुल और वंश के सम्बन्ध में समवायांग आदि मूल आगमों में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं प्राप्त होता । केवल आवश्यक नियुक्ति में कुछ संकेत मिलता है, वहाँ बाईस तीर्थंकरों को काश्यपगोत्रीय और मूनिसुव्रत एवं अरिष्टनेमि को गौतमगोत्रीय बतलाया है । पर देवभद्र सूरि के “पार्श्वनाथ चरित्र" और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में अश्वसेन भूप को इक्ष्वाकुवंशी' माना गया है । काश्यप और इक्ष्वाकु एकार्थक होने से कहीं इक्ष्वाकु के स्थान पर काश्यप कहते हैं । पूष्पदन्त ने पार्श्व को उग्रवंशीय कहा है । तिलोयपन्नत्ती में भी आपका वंश उग्रवंश बतलाया है और आजकल के इतिहासज्ञ विद्वान् पार्श्व को उरग या नागवंशी भी कहते हैं।
नामकरण
JAISGAREKn.maharth
पुत्रजन्म की खुशी में महाराज अश्वसेन ने दश दिनों तक मंगल-महोत्सव मनाया और बारहवें दिन नामकरण करने के लिए अपने सभी स्वजन एवं मित्र-वर्ग को आमन्त्रित कर बोले-“बालक के गर्भस्थ रहते समय इसकी माता ने अँधेरी रात में भी पास (पार्श्व) में चलते हुए सर्प को देख कर मुझे सूचित किया और अपनी प्राणहानि से मुझे बचाया, अत: इस बालक का नाम पार्श्वनाथ रखना चाहिए।" इस निश्चय के अनसार बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया।
१ तस्यामिक्ष्वाकुवंश्योऽभूदश्वसेनो महीपतिः । [त्रि.श.पु०२०, प. ६, स. ३, श्लो० १४] २ महापुराण--१४।२२।२३ ३. (क) सामण सम्वे जाणका पासका य सम्व भावाणं, विसेसो माता अन्धारे सप्पं
पासति, रायाणं भणति-हत्यं विनएह सप्पो जाति, किह एस दीसति ? दीवएणं पलोइनो दिट्ठो।
[प्रावश्यक चूणि, उत्तर भाग, पृष्ठ ११] (ख) मर्मस्थितेऽस्मिञ्जननी, कृष्णनिश्यपि पार्श्वतः ।
सर्पन्तं सर्पमद्राक्षीत्, सब: पत्युः शशंस च ।। स्मृत्वा तदेष गर्भस्य, प्रभाव इति निर्णयन् । पाश्वं इत्यभिषा सूनोरश्वसेननृपोफ्ररोत् ।।
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १, सर्ग ३, श्लो. ४५) (4) पासोबसप्पेण सुविणयंमि सप्पं पलोहत्या.....
[सिरि पासनाह परिउ, गापा ११, प्र. ३ पृष्ठ १४०]
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