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साधना]
भगवान् श्री पार्श्वनाथ सुवर्णबाहु के इस अयाचित साहाय्य से क्रीड़ारत सभी कन्याएँ प्रभावित हुई और राजकुमारी का परिचय देते हुए बोलीं-"यह राजा खेचरेन्द्र की राजकुमारी पद्मा हैं । अपने पिता के देहान्त के कारण राजमाता रत्नावली के साथ यह यहाँ गालव ऋषि के आश्रम में सुरक्षा हेतु प्राई हुई हैं। यहाँ कल एक दिव्यज्ञानी ने आकर रत्नावली से कहा-"तुम चिन्ता न करो, तुम्हारी कन्या को चक्रवर्ती सुवर्णबाहु जैसे योग्य पति की प्राप्ति होगी । आज वह बात सत्य सिद्ध हुई है।"
आश्रम के प्राचार्य गालव ऋषि ने जब सुवर्णबाहु के आने की बात सुनी तो महारानी रत्नावली को साथ लेकर वे भी वहाँ आये और अतिथि सत्कार के पश्चात् सुवर्णबाहु के साथ पदमा का गांधर्व-विवाह कर दिया। उस समय राजा सुवर्णबाहु का सैन्यदल और पद्मा के भाई पद्मोत्तर भी वहाँ आ गये । पद्मोत्तर के प्राग्रह से सुवर्णबाहु कुछ समय तक वहाँ रहे और फिर अपने नगर को लौट आये।
राज्य का उपभोग करते हुए सुवर्णबाहु के यहाँ चक्ररत्न प्रकट हुमा । उसके प्रभाव से षट्खंड की साधना कर सुवर्णबाहु चक्रवर्ती सम्राट् बन गये।'
- एक दिन पुराणपुर के उद्यान में तीर्थंकर जगन्नाथ का समवशरण हुमा । सुवर्णबाहु ने सहस्रों नर-नारियों को समवशरण की ओर जाते देख कर द्वार. पाल से इसका कारण पूछा और जब उन्हें तीर्थंकर जगन्नाथ के पधारने की बात मालूम हई तो हर्षित होकर वे भी सपरिवार उन्हें वन्दन करने गये । तीर्थंकर जगन्नाथ के दर्शन और समवशरण में आये हुए देवों का बार बार स्मरण कर सुवर्णबाहु बहुत प्रभावित हुए और उन्हें वीतराग-जीवन की महिमा पर चिन्तन करते हुए जातिस्मरण हो पाया । फलतः पुत्र को राज्य सौंप कर उन्होंने तीर्थकर जगन्नाथ के पास दीक्षा ग्रहण की एवं उग्र तपस्या करते हुए गीतार्थ हो गये । मुनि सुवर्णबाहु ने तीर्थंकर गोत्र उपार्जित करने के अर्हद्भक्ति प्रादि बीस साधनों में से अनेक की सम्यकरूप से प्राराधना कर तीर्थकर गोत्र का बंध किया । तपस्या के साथ-साथ उनकी प्रतिज्ञा बड़ी बढ़ी-चढ़ी थी। एक बार वे विहार करते हए क्षीरगिरि के पास क्षीरवर्ण नामक वन में आये और सूर्य के सामने दृष्टि रख कर कायोत्सर्गपूर्वक प्रातापना लेने खड़े हो गये । उस समय कमठ का जीव, जो सप्तम नर्क से निकल कर उस वन में सिंह रूप से उत्पन्न हुआ था, अपने सामने सुवर्णबाहु मुनि को खड़े देख कर क्रुद्ध हो गर्जनों करता हुआ उन पर झपट पड़ा। • १ विषष्टि शलाका पु० च०६।२१ २. चउ. म. प्र. च., पृ. २५५ ३ चउवन्न महापुरिस परियं, पृ० २५६
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