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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[पूर्वभव की
साधना के फलस्वरूप ही तीर्थंकर-पद की योग्यता प्राप्त की थी। कोई भी आत्मा एकाएक पूर्ण विकास नहीं कर लेता । जन्मजन्मान्तर की करनी और साधना से ही विशुद्धि प्राप्त कर वह मोक्ष योग्य स्थिति प्राप्त करता है । भगवान् पार्श्व का साधनारम्भकाल दश भव पूर्व से बतलाया गया है, जिसका विस्तृत परिचय 'चउवन महापुरिस चरियम्', 'त्रिषष्टि शलाका पुरिष चरित्र' आदि में द्रष्टव्य है । यहाँ उनका नामोल्लेख कर आठवें भव से, जहाँ तीर्थंकर-गोत्र का बन्ध किया, संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। - प्रभु पार्श्वनाथ के १० भव इस प्रकार हैं :-प्रथम मरुभूति और कमठ का भव, दूसरा हाथी का भव, तीसरा सहस्रार देव का, चौथा किरण देव विद्याधर का, पाँचवां अच्युत देव का, छठा वज्रनाभ का, सातवाँ अवेयक देव का, आठवाँ स्वर्णबाहु का, नवाँ प्राणत देव का और दशवाँ पार्श्वनाथ का।
इन्होंने स्वर्णबाह के (अपने आठवें) भव में तीर्थंकर-गोत्र उपार्जित करने के बीस बोलों की साधना की और तीर्थंकर-गोत्र का उपार्जन किया, जिसका संक्षिप्त वृत्तान्त इस प्रकार है :
वजनाभ का जीव देवलोक से च्युत हो पूर्व-विदेह में महाराज कुलिशबाहु की धर्मपत्नी सुदर्शना की कुक्षि से चक्रवर्ती के सब लक्षणों से युक्त सुवर्णबाहु के रूप में उत्पन्न हुआ । सुवर्णबाहु के युवा होने पर महाराज कुलिशबाहु ने योग्य कन्याओं से उनका विवाह कर दिया और उन्हें राजपद पर अभिषिक्त कर वे स्वयं दीक्षित हो गये।
. राजा होने के पश्चात् सुवर्णबाहु एक दिन अश्व पर आरूढ़ हो प्रकृतिदर्शन के लिए वन की ओर निकले । घोड़ा बेकाबू हो गया और उन्हें एक गहन बीहड़ वन में ले गया। उनके सब साथी पीछे रह गये । एक सरोवर के पास घोड़े के खड़े होने पर राजा घोड़े से नीचे उतरे । उन्होंने सरोवर में जलपान किया और घोड़े को एक वृक्ष से बाँधकर वन-विहार के लिए निकल पड़े। घूमते हुए सुवर्णबाहु एक आश्रम के पास पहुँचे, जिसमें कि पाश्रमवासी तापस रहते थे । राजा ने देखा कि उस आश्रम के कुसुम-उद्यान में कुछ युवा कन्यायें क्रीड़ा कर रही हैं। उनमें से एक अति कमनीय सुन्दरी को देख कर सूवर्णबाहु का मन उस कन्या के प्रति आकृष्ट हो गया और वे उस कन्या के सौन्दर्य को अपलक देखने लगे । कन्या के ललाट पर किये गये चन्दनादि के लेप और सुवासित हार से उसके मुख पर भौरे मंडराने लगे। कन्या द्वारा बार-बार हटाये जाने पर भी भौंरे अधिकाधिक संख्या में उसके मुखमण्डल पर मँडराने लगे, इससे घबड़ा कर कन्या सहसा चिल्ला उठी । इस पर सुवर्णबाहु ने अपनी चादर के छोर से भौंरों को हटा कर कन्या को भयमुक्त कर दिया।
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