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पूर्व धार्मिक स्थिति] भगवान् श्री पार्श्वनाथ
इस प्रकार की विचारधाराएँ मागे बढ़ी तो वेदों के प्रपौरुषेयत्व और अनादित्व पर माक्षेप आने लगा। ये विचारक एकान्त, शान्त वन-प्रदेशों में ब्रह्म, जगत् और प्रात्मा प्रादि अतीन्द्रिय विषयों पर चिन्तन किया करते । ये अधिकांशतः मौन रहते, अतः मुनि कहलाये । वेदों में भी ऐसे वासरशना तत्वचिन्तकों को ही मुनि' कहा गया है ।।
• इन वनवासियों का जीवन-सिद्धान्त तपस्या, दान, पाव, महिंसा और सत्य था। छान्दोग्योपनिषद में श्री कृष्ण को घोर अंगिरस ऋषि ने यज्ञ की यही सरल विधि बतलाई थी और उनकी दक्षिणा भी यही थी । गीता के अनुसार इन भावनाओं की उत्पत्ति ईश्वर (स्वयं प्रात्मदेव) से बताई गई है।
उस समय एक ओर इस प्रकार का ज्ञान-यज्ञ चल रहा था, तो दूसरी मोर यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ा कर देवों को प्रसन्न करने का प्रायोजन भी खुल कर होता था। जब लोक-मानस कल्यारणमार्ग का निर्णय करने में दिकमढ़ होकर किसी विशिष्ट नेतृत्व की अपेक्षा में था ऐसे ही समय में भगवान् पार्श्वनाथ का भारत की पुण्यभूमि वाराणसी में उत्तरण हुमा । उनका करुणाकोमल मन प्राणिमात्र को सुख-शान्ति का प्रशस्त मार्ग दिखाना चाहता था। उन्होंने अनुकूल समय में यज्ञ-याग की हिंसा का प्रबल विरोध किया और प्रात्मध्यान, इन्द्रियदमन पर जनता का ध्यान आकर्षित किया । माधुनिक इतिहास-लेखकों की कल्पना है कि हिंसामय यज्ञ का विरोध करने से यशप्रेमी उनके कट्टर विरोधी हो गये। उनके विरोध के फलस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ को अपना जन्मस्थान छोड़कर अनार्य देश को अपना उपदेश-क्षेत्र बनाना पड़ा। वास्तव में ऐसी बात नहीं है । यज्ञ का विरोध भगवान महावीर के समय में भगवान पार्श्वनाथ के समय से भी उग्र रूप से किया गया था, फिर भी वे अपने जन्मस्थान और उसके भासपास धर्म का प्रचार करते रहे । ऐसी स्थिति में पार्श्वनाथ का अनार्य प्रदेश में भ्रमण भी विरोध के भय से नहीं, किन्तु सहज धर्म-प्रचार की भावना से ही होना संगत प्रतीत होता है।
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पूर्वमव की साधना अन्य सभी तीर्थकरों के समान भगवान् पार्श्वनाथ ने भी पूर्वभव की १ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. १४.१६ '२ चान्दोग्यपनिषद्, ३।१७।४-६ ३ अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यथोऽयशः । भवन्ति भावाः भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥
- [गीता १०।५] ४ हिस्टोरिकल बिगिनिंग प्राफ जैनिज्म, पृ० ७८ ।
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