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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् पार्श्वनाथ के डॉ० चार्ल शापेंटियर ने लिखा है - "हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिये कि जैन धर्म निश्चितरूपेरण महावीर से प्राचीन है । उनके प्रख्यात पूर्वगामी पार्श्व प्रायः निश्चितरूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं; एवं परिणामस्वरूप मूल सिद्धान्तों की मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्र रूप धारण कर चुकी होंगी ।"" ४७६ भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व धार्मिक स्थिति ·3 भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों की विशिष्टता समझने के लिये उस समय की देश की धार्मिक स्थिति कैसी थी, यह समझना प्रावश्यक है । उपलब्ध वैदिक साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि ई० वीं सदी से पूर्व ऋग्वेद के अन्तिम मंडल की रचना हो चुकी थी। मंडल के नासदीय सूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त' तथा पुरुषसूक्त प्रभृति से प्रमाणित होता है कि उस समय देश में तस्व-जिज्ञासाएँ उद्भूत होने लगीं और उन पर गम्भीर चिंतन चलने लगे थे । उपनिषद्काल में ये जिज्ञासाएँ इतनी प्रबल हो चुकी थीं कि उनके चिन्तन-मनन के लिए विद्वानों की सभाएं की जाने लगीं। उनमें राजा, ऋषि, ब्राह्मण और क्षत्रिय समान रूप से भाग लेते थे । उनमें जगत् के मूलभूत तत्त्वों के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन कर सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये, जिनको पराविद्या' कहा गया । उनमें गार्ग्यायरण. जनक भुगु, वारुणि, उद्दालक और याज्ञवल्क्य आदि पराविद्या के प्रमुख प्राचार्य थे। इनके विचारों में विविधता थी । म्रात्मविषयक चिन्तन में गति बढ़ने पर सहज-स्वाभाविक था कि यज्ञ-यागादि क्रियाकाण्ड में रुचि कम हो, कारण कि मोक्ष प्राप्ति के लिए यज्ञ प्रादि क्रियानों का किसी प्रकार का उपयोग नहीं है । गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् विचारकों को यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड को 'अपराविद्या' और मोक्षदायक प्रात्मज्ञान को 'पराविद्या' की संज्ञा देकर 'अपराविद्या' से 'पराविद्या' को श्रेष्ठ बतलाया । 1 कठोपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया कि : नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेघया वा बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष श्रात्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥ • The Uttaradhyayana Sutra, Introduction, Page 21 :-- "We ought also to remember both the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parshva having almost certainly existed as a real person, and that consequently, the main points of the original doctrine may have been codified long before Mahavira." २ ऋग्वेद १०।१२६ ३ वही १०।१२१ ४ वही १०/६० Jain Education International [१/२/२,३] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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