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________________ तीर्थकर और क्षत्रिय-कुल तीर्थंकरों ने साधना और सिद्धान्त में सर्वत्र गुण और तप की प्रधानता बतलाई है, जाति या कुल की प्रधानता नहीं मानी। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि तीर्थंकरों का जन्म क्षात्र-कुलों में ही क्यों माना गया ? क्या इसमें जातिवाद की गन्ध नहीं है ? जैन शास्त्रानुसार जाति में जन्म की अपेक्षा गुणकर्म की प्रधानता मानी गई है। जैसी कि उक्ति प्रसिद्ध है 'कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ।' (उत्त. २३। ३३) 'ब्राह्मण या क्षत्रिय कर्मानुसार होता है। ब्राह्मण-ब्रह्मचर्य-सत्य-संतोष-प्रधान भिक्षाजीवी होता है जबकि क्षत्रिय ओजस्वी, तेजस्वी, रणक्रिया-प्रधान प्रभावशाली होता है। धर्म-शासन के संचालन और रक्षण में आन्तरिक सत्य शीलादि गुणों के साथ-साथ ओजस्विता की भी परम आवश्यकता रहती है अन्यथा दुर्बल की दया के समान साधारण जन-मन पर धर्म का प्रभाव नहीं होगा। ब्राह्मण कुलोत्पन्न व्यक्ति शान्त, सुशील एवं मृदु स्वभाव वाला होता है, तेज-प्रधान नहीं। उसके द्वारा किया गया अहिंसा-प्रचार प्रभावोत्पादक नहीं होता। क्षात्र-तेज वाला शस्त्रास्त्र-सम्पन्न व्यक्ति राज्य-वैभव को साहसपूर्वक त्यागकर अहिंसा की बात करता है तो अवश्य उसका प्रभाव होता है। यही कारण है कि जातिवाद से दूर रहकर भी जैन धर्म ने तीर्थंकरों का क्षात्रकुल में ही जन्म मान्य किया है। दरिद्र, भिक्षुक-कुल, कृपण-कुल आदि का खास निषेध किया है। ऋषभदेव से महावीर तक सभी तीर्थंकर क्षत्रिय-कुल के विमल गगन में उदय पाकर संसार को विमल ज्योति से चमकाते रहे। कठोर-से-कठोर कर्म काटने में भी उन्होंने अपने तपोबल से सिद्धि प्राप्त की। तीर्थकर की स्वाश्रित साधना देव-देवेन्द्रों से पूजित होकर भी तीर्थंकर अपनी तप-साधना में स्वावलम्बी होते हैं। वे किसी देव-दानव या मानव का कभी सहारा नहीं चाहते। भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर की साधना में धरणेन्द्र, सिद्धार्थ देव और शक्रेन्द्र का सेवा में आकर उपसर्ग-दाताओं को हटाने का उल्लेख आता है पर पार्श्वनाथ या महावीर ने मारणान्तिक कष्टों में भी उनकी साहाय्य की इच्छा नहीं की। जब भी श्रमण भगवान् महावीर से देवेन्द्र ने निवेदन किया- भगवन् ! आप पर भयंकर कष्ट और उपसर्ग आने वाले हैं। आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवा में रहकर कष्ट निवारण करना चाहता उत्तर में प्रभु ने यही कहा- "शक्र ! स्वयं द्वारा बांधे हुये कर्म स्वयं को ही काटने होते हैं। दूसरों की सहायता से फलभोग का समय आगे-पीछे हो १. तवो विसेसो, न जाइ विसेस कोइ। उ. १२/३७ २. देखें कल्पसूत्र। ( १७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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