SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२) सुरकृत पुष्पवृष्टि, (३) दिव्य ध्वनि, (४) चामर, (५) स्फटिक सिंहासन, (६) भामण्डल- प्रभामण्डल, (७) देव - दुन्दुभि और (८) छत्रत्रय - ये अतिशय होते हैं। इनको प्रातिहार्य कहते हैं। सामान्यरूपेण तीर्थंकर से बारह गुना ऊँचा अशोक वृक्ष होता है। इसके अतिरिक्त तीर्थंकर की ३४ अतिशयमयी विशेषताएं होती हैं। उनकी वाणी भी ३५ विशिष्ट गुणवती होती हैं। सामान्य कैवली के ये अतिशय नहीं होते। तीर्थंकरों का बल तीर्थंकर धर्मतीर्थ के संस्थापक और चालक होते हैं अतः उनका बलवीर्य जन्म से ही अमित होता है। नरेन्द्र चक्रवर्ती ही नहीं सुरेन्द्र से भी तीर्थंकर का बल अनन्त गुना अधिक माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ५६३ पर तीर्थंकर के बल को तुलना से समझाया गया है। विशेषावश्यक भाष्य और नियुक्ति में इसको प्रकारान्तर से भी बतलाया है । वसुदेव से द्विगुणित बल चक्रवर्ती का और चक्रवर्ती से अपरिमित बल तीर्थंकर का कहा गया है । वहाँ उदाहरणपूर्वक बताया गया है कि कूप तट पर बैठे हुए वासुदेव को सांकळों से बांधकर सोलह हजार राजा अपनी सेनाओं के साथ पूरी शक्ति लगाकर खींचें तब भी वह लीला से बैठे खाना खाते रहे, तिलमात्र भी हिले-डुलें नहीं ।" तीर्थंकरों का बल इन्द्रों को भी इसलिए हरा देता है कि उनमें तन-बल के साथ-साथ अतुल मनोबल और अदम्य आत्मबल होता है। कथा - साहित्य में नवजात शिशु महावीर द्वारा चरणांगुष्ठ से सुमेरु पर्वत को प्रकम्पित कर देने की बात इसीलिए अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा असम्भव नहीं कही जा सकती क्योंकि तीर्थंकर के अतुल बल के समक्ष ऐसी घटनाएँ साधारण समझनी चाहिये । 'अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में जिसका मन सदा रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते और सेवा करते रहते हैं' इस आर्ष वचनानुसार तीर्थंकर भगवान् सदा देव-देवेन्द्रों द्वारा सेवित रहते हैं । १. सोलस रायहस्सा, सव्व-बलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेव, अगडतडम्मि ठियं संत ॥ ७० ॥ घेलूण संकलं सो, वाम हत्थेण अंछमाणाणं । भुँजिज विर्लिपिज्ञ व महुमणं ते न चाएंति ॥ ७१ ॥ दो सोला बत्तीसा, सव्व बलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति चक्कवट्टि, अगडतडम्मि ठियं संतं ॥ ७२ ॥ घेणं संकलं सो, वामगहत्येण अंछमाणाणें । जिन विलिंपिज व चक्कहरं ते न चायन्ति ॥ ७३ ॥ जं केसवस्स बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ॥ ७४ ॥ - Jain Education International (विशेषावश्यक भाष्य मूल पृ. ५७-५८, भा. 190-७५ ) ( १६ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy