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अर्थात् आचार्य परम्परागत सब इतिहास जो नामावळी में निबद्ध है, वह संक्षेप में कहूँगा। उन्होंने फिर कहा है :
___ परम्परा से होती आई पूर्व-ग्रन्थों के अर्थ की हानि को काल का प्रभाव समझ कर विद्वज्जनों को खिन्न नहीं होना चाहिए। यथा
एवं परम्पराए परिहाणि पुव्वगंथ अत्थाण।
नाऊण काळभाव न रुसियव्व बुहजणेण ॥ इससे प्रमाणित होता है कि प्राचीन समय में नामावली के रूप में संक्षिप्त रूप से इतिहास को सुरक्षित रखने की पद्धति बहुमान्य थी। धर्म-संप्रदायों की तरह राजवंशों में भी इस प्रकार इतिहास को सुरक्षित रखने का क्रम चलता था। जैसा कि बीकानेर राज्य के राजवंश की एक ऐतिहासिक उक्ति से स्पष्ट होता है :
बीको नरो ळूणसी जैसी कलो राय। दळपत सूरो करणसी अनूप सरूप सुजाय ॥ जोरो गजो राजसी प्रतापो सूरत्त।
रतनसी सरदारसी, डूंग गंग महिपत्त ॥ इस प्रकार नामावलि-निबद्ध इतिहास के प्राचीन एवं प्रामाणिक होने से इसकी विश्वसनीयता में कोई शंका नहीं रहती।
तीर्थकरों और केवली
केवली और तीर्थंकरों में समानता होते हुए भी अंतर है। घाती-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान का उपार्जेन करने वाले केवली कहलाते हैं। तीर्थंकरों की तरह उनमें केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है फिर भी वे तीर्थंकर नहीं कहलाते।
ऋषभ देव से वर्धमान-महावीर तक चौबीसों अरिहंत केवली होने के साथ-साथ तीर्थंकर भी हैं। केवली और तीर्थंकर में वीतरागता एवं ज्ञान की समानता होते हुए भी अन्तर है। तीर्थंकर स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भी विशिष्ट योग्यता रखते हैं। वे त्रिजगत् के उद्धारक होते हैं। उनका देव, असुर, मानव, पशु, पक्षी, संब पर उपकार होता है। उनकी कई बातें विशिष्ट होती हैं। वे जन्म से ही कुछ विलक्षणता लिए होते हैं जो केवली में नहीं होती। जैसे तीर्थंकर के शरीर पर १००८ लक्षण होते हैं। केवली के नहीं। तीर्थंकर की तरह केवली में विशिष्ट वागतिशय और नरेन्द्र-देवेन्द्र कृत पूजातिशय नहीं होता। उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य होता है पर महाप्रातिहार्य नहीं होते। तीर्थंकर की यह खास विशेषता है कि उनके साथ (१) अशोक वृक्ष,
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१. अट्ठसहस्सलक्खणधरी'
, उत्तराध्ययन, २२/५
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