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यतिवृषभ ने तिळोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों की रचना की। आपका रचनाकाल ई. चौथी शताब्दी के आसपास माना गया है।
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जिनसेन ने ई. ९वीं शताब्दी के प्रारम्भकाल में आदि पुराण और हरिवंश पुराण की रचना की ।
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आचार्य गुणभद्र ने शक सम्वत् ८२० में उत्तर पुराण की रचना की । (१०) रविषेण ने ई. सन् ६७८ में पद्मपुराण की रचना की ।
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आचार्य शीळांक ने ई. सन् ८६८ में चउवन महापुरिसचरियं की रचना की ।
(१२) पुष्पदन्त ने विक्रम सम्वत् १०१६ से १०२२ में अपभ्रंश भाषा के महापुराण नामक इतिहास- ग्रन्थ की रचना की ।
(१३) भद्रेश्वर ने ईसा की ११वीं शताब्दी में कहावली ग्रन्थ की रचना की । (१४) आचार्य हेमचन्द्र ने ई. सं. १२२६ से १२२९ में त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित्र नामक इतिहास- ग्रंथ की रचना की ।
(१५) धर्मसागर गणी ने तपागच्छ-पट्टावली सूत्रवृत्ति नामक (प्राकृत-सं.) इतिहास- ग्रन्थ की रचना वि. सं. १६४६ में की।
इन संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के इतिहास-ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक ज्ञात और अगणित अज्ञात विद्वानों ने जैन इतिहास के सम्बन्ध में हिन्दी, गुजराती आदि प्रान्तीय भाषाओं में रचनाएं की हैं। जागरूक सन्त-समाज ने अनेकों स्थविरावळियां, सैकड़ों पट्टावलियां आदि लिखकर भी इतिहास की श्रीवृद्धि करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी है। उन सबके प्रति हम हृदय से कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
इतिहास की विश्वसनीयता
उपरोक्त पर्यालोचन के बाद यह कहना किंचित्मात्र की अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमारा जैन- इतिहास बहुत गहरी सुदृढ़ नींव पर खड़ा है। यह इधर-उधर की किंवदन्ती या कल्पना के आधार से नहीं पर प्रामाणिक पूर्वाचार्यों की अविरळ परम्परा से प्राप्त है। अतः इसकी विश्वसनीयता में लेशमात्र भी शंका की गुंजाइश नहीं रहती । जैसा कि आचार्य विमळसूरि ने अपने पउमचरियं ग्रन्थ में लिखा है :―
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नामावलिय निबद्धं आयरियपरम्परागयं सव्वं । वोच्छामि पउम चरियं, अहाणुपुव्विं समासेण ॥
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