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________________ andit -MINIVAAMAS सकता है पर कर्म नहीं कटते। तीर्थंकर स्वयं ही कर्म काट कर अरिहंत-पद प्राप्त करते हैं। इसी भाव से प्रभु ने शूलपाणि यक्ष के उपसर्ग और एक रात में ही संगमकृत बीस उपसर्गों की समतापूर्वक सहन किया ? प्रभु यदि मन में भी लाते कि ऐसा क्यों हो रहा है तो इन्द्र सेवा में तैयार था पर प्रभु अडोल रहे। प्रत्येक तीर्थंकर के शासन-रक्षक यक्ष, यक्षिणी होते हैं, जो समय-समय पर शासन की संकट से रक्षा और तीर्थंकरों के भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं। तीर्थंकर भगवान् अपने कष्ट-निवारणार्थ उन्हें भी याद नहीं करते। इसके अतिरिक्त भी जब भगवान् महावीर ने देखा कि परिचित भूमि में लोग उन पर कष्ट और परीषह नहीं आने देते हैं, तब अपने कर्मों को काटने हेतु वे वज्रभूमि शुभ्रभूमि जैसे अनार्य-खण्ड में चले गये, जहाँ कोई भी परिचित न होने के कारण उनकी सहाय या कष्ट-निवारण न कर सके। वहाँ कैसे-कैसे कष्ट सहे, यह विहार चर्या में पढ़ें। इस प्रकार की अपनी कठोरतम दिनचर्या एवं जीवनचर्या से तीर्थंकरों ने संसार को यह पाठ पढ़ाया कि प्रत्येक व्यक्ति को साहस के साथ अपने कर्मों को काटने में जुट जाना चाहिए। फलभोग के समय घबराकर भागना वीरता नहीं। अशुभ फल को भोगने में भी धीरता के साथ डटे रहना और शुभ ध्यान से कर्म काटना ही वीरत्व है। यही शान्ति का मार्ग है। तीर्थंकरों का अंतरकाल एक तीर्थंकर के निर्वाण के पश्चात् दूसरे तीर्थंकर के निर्वाण तक के काल को मोक्ष-प्राप्ति का अन्तरकाल कहते हैं। एक तीर्थंकर के जन्म से दूसरे तीर्थंकर के जन्म तक और एक की केवलोत्पत्ति से दूसरे की केवलोत्पत्ति तक का अन्तरकाल भी होता है पर यह निर्वाणकाल की अपेक्षा अन्तरकाल है। प्रवचन सारोद्धार और तिलोयपण्णत्ती में इसी दृष्टि से तीर्थंकरों का अन्तरकाल बताया गया है। प्रवचन सारोद्धार की टीका एवं अर्थ में स्पष्ट रूप से कहा है कि समुत्पन्न का अर्थ जन्मना नहीं करके 'सिद्धत्वेन समुत्पन्नः' अर्थात् सिद्ध हुए करना चाहिए। तभी बराबर काल की गणना बैठ सकती है। तीर्थंकरों के अन्तरकालों में उनके शासनवर्ती आचार्य और स्थविर तीर्थंकर-वाणी के आधार पर धर्म तीर्थ का अक्षुण्ण संचालन करते हैं। आत्मार्थी साधक शास्त्रानुकूल आचरण कर सिद्धि भी प्राप्त करते हैं। प्रथम १. इतिहास का पृ. ५७११ २. इतिहास का पृ. ५७४-७७, ५९९-६०४ ३. (क) समवायांग (ख) तिलोयपण्णत्ती ४/९३४-३९ ४. इतिहास का पृ. ५९२-९३ ( १८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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