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प्राचार्य परम्परा
भगवान् श्री पार्श्वनाथ
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कहा जाता है कि लौहित्याचार्य ने दक्षिण में लंका तक जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध भिक्षु धेनुसेन ने ईसा की पांचवीं शताब्दी में लंका के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला 'महादेश काव्य' नामक पाली भाषा का एक काव्य लिखा था। उस काव्य में ईस्वी सन् पूर्व ५४३ से ३०१ वर्ष तक की लंका की स्थिति का वर्णन करते हुए धेनुसेन ने लिखा है कि सिंहलद्वीप के राजा 'पनगानय' ने लगभग ई० सन पूर्व ४३७ में अपरी राजधानी अनुराधापुर में स्थापित की और वहां निग्रंथ मुनियों के लिए 'गिरी' नामक एक स्थान खुला छोड़ रक्खा ।
___ इससे सिद्ध होता है कि सुदूर दक्षिण में उस समय जैन धर्म का प्रचार और प्रसार हो चुका था।
इस प्रकार आचार्य हरिदत्त के नेतृत्व में उस समय जैन धर्म का दूर-दूर तक प्रभाव फैल गया था।
प्राचार्य हरिदत्त ने ७० वर्ष तक धर्म का प्रचार कर समुद्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और अन्त में पावनिर्वाण संवत् ६४ में मुक्ति के अधिकारी हुए। ३. प्रार्य समुद्रसूरि
भगवान् पार्श्वनाथ के तीसरे पट्टधर आर्य समुद्रसूरि हुए । पार्श्व सं० ६४ से १६६ तक ये भी जिनशासन की सेवा करते रहें। इन्होंने विविध देशों में घूम-घूम कर धर्म का प्रचार किया। आप चतुर्दश पूर्वधारी और यज्ञवाद से होने वाली हिंसा के प्रबल विरोधी थे । आपके आज्ञानुवर्ती विदेशी नामक एक मुनि, जो बड़े प्रतिभाशाली और प्रकाण्ड विद्वान् थे, एक बार विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। कहा जाता है कि आपके त्याग-विरागपूर्ण उपदेश से प्रभावित हो उज्जयिनी के राजा जयसेन और रानी अनंग सून्दरी ने अपने प्रिय पूत्र केशी के साथ जैन श्रमरण-दीक्षा अंगीकार की। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार बालर्षि केशी जातिस्मरण के साथ-साथ चतुर्दश पूर्व तक श्रुतज्ञान के धारक थे।
इन्हीं केशी श्रमण ने प्राचार्य समुद्रसूरि के समय में यज्ञवाद के प्रचारक मुकुद नामक प्राचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
अन्त में प्राचार्य समुद्रसूरि ने अपना अन्तिम समय निकट देख केशी को प्राचार्यपद पर नियुक्त किया और पार्श्व सं० १६६ में सकल कमों का क्षय कर निर्वाण-पद प्राप्त किया। ४. मार्य केशी श्रमण
भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर प्राचार्य केशी श्रमण हुए, जो बड़े ही
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