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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पाश्वनाथ की प्रतिभाशाली, बालब्रह्मचारी, चौदह पूर्वधारी और मति, श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारक थे।
कहा जाता है कि आपने बड़ी योग्यता के साथ श्रमणसंघ के संगठन को सुदढ़ बना कर विद्वान् श्रमणों के नेतृत्व में पांच-पांच सौ (५००-५००) साधूनों की टुकड़ियों को पांचाल, सिन्धु-सौवीर, अंग-बंग, कलिंग, तेलंग, महाराष्ट्र, काशी,कोशल, सूरसेन, अवन्ती, कोंकण आदि प्रान्तों में भेज कर और स्वयं ने एक हजार साधुओं के साथ मगध प्रदेश में रह कर सारे भारत में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया। पार्श्व संवत् १६६ से २५० तक आपका प्राचार्यकाल बताया गया है।
आपने ही अपने अमोघ उपदेश से श्वेताम्बिका के महाराज 'प्रदेशी' को घोर नास्तिक से परम आस्तिक बनाया। राजा प्रदेशी ने आपके पास श्रावकधर्म स्वीकार किया और अपने राज्य की आय का चतुर्थ भाग दान में देता हुआ वह सांसारिक भोगों से विरक्त हो छट्ठ-छट्ठ-भक्त की तपस्यापूर्वक प्रात्मकल्याण में जुट गया।
अपने पति को राज्य-व्यवस्था के कार्यों से उदासीन देख कर रानी सरिकान्ता ने स्वार्थवश अपने पुत्र सूरिकान्त को राजा बनाने की इच्छा से महाराज प्रदेशी को उनके तेरहवें छ?-भक्त के पारणे के समय विषाक्त भोजन खिला दिया। प्रदेशी ने भी विष का प्रभाव होते ही सारी स्थिति समझ ली, किन्तु रानी के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना न रखते हुए समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग किया और सौधर्मकल्प में ऋद्धिमान् सूर्याभ देव बना।
प्राचार्य केशिकुमार पार्श्वनिर्माण संवत् १६६ से २५० तक, अर्थात् चौरासी (८४) वर्ष तक प्राचार्यपद पर रहे और अन्त में स्वयंप्रभ सूरि को अपना उत्तराधिकारी बना कर मुक्त हुए।
'इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के चार पट्टधर भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण बाद के २५० वर्षों के समय में मुक्त हुए ।
अनेक विद्वान् प्राचार्य केशिकुमार और कुमार केशिश्रमण को, जिन्होंने गौतम गणधर के साथ हुए संवाद से प्रभावित हो सावत्थी नगरी में पंच महाव्रत रूप श्रमणधर्म स्वीकार किया, एक ही मानते हैं, पर उनकी यह मान्यता समीचीन विवेचन के पश्चात् संगत एवं शास्त्रसम्मत प्रतीत नहीं होती।
शास्त्र में केशी नाम के दो मुनियों का परिचय उपलब्ध होता है । एक तो प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले केशिश्रमण का और दूसरे गौतम के साथ सवाद के पश्चात् चातुर्यामधर्म से पंचमहावत रूप श्रमणधर्म स्वीकार करने वाले
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