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________________ प्राचार्य परम्परा ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२६ केशकुमार श्रमण का । इन दोनों में से भगवान् पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर कौनसे केशिश्रमण थे, यह यहां एक विचारणीय प्रश्न है । श्राचार्य राजेन्द्रसूरि ने अपने अभिधान राजेन्द्र-कोष में दो स्थानों पर शिश्रमण का परिचय दिया है। उन्होंने इस कोष के भाग प्रथम, पृष्ठ २०१ पर 'अजरिणय कण्णिया' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए केशिश्रमण के लिए निग्रंथी पुत्र, कुमारावस्था में प्रव्रजित एवं युगप्रवर्तक आचार्य होने का उल्लेख किया है और आगे चल कर इसी कोष के भाग ३, पृष्ठ ६६६ पर 'केशी' शब्द की व्युत्पत्ति में उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि करते हुए लिखा है : “केससंस्पृष्टशुक्रपुद्गलसम्पर्काज्जाते निर्ग्रन्थी पुत्रे, ( स च यथा जातस्तथा 'अणिकन्निया' शब्दे प्रथम भागे १०१ पृष्ठे दर्शितः ) स च कुमार एव प्रवजितः पार्श्वापत्ययश्चतुर्ज्ञानी अनगारगुणसम्पन्नः सूर्याभदेव - जीवं पूर्वभवे प्रदेशी नामानं राजानं प्रबोधयदिति । रा० नि० । ध० २० । ( तद्वर्णकविशिष्टं 'पए सि' शब्दे वक्ष्यते गोयम केसिज्ज शब्दे गौतमेन सहास्य संवादो वक्ष्यते ) " इस प्रकार राजेन्द्रसूरि ने केशिश्रमण आचार्य को ही प्रदेशी प्रतिबोधक, चार ज्ञान का धारक और गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला केशी बताकर एक ही केशिश्रमण के होने की मान्यता प्रकट की है । उपकेशगच्छ चरित्र से केशिकुमार श्रमण को उज्जयिनी के महाराज जयसेन व रानी अनंग सुन्दरी का पुत्र, आचार्य समुद्रसूरि का शिष्य, पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा व चतुर्थ पट्टधर, प्रदेशी राजा का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला बताया गया है । एक ओर उपकेशगच्छ पट्टावली में निर्ग्रन्थीपुत्र केशी का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है, तो दूसरी ओर अभिधान राजेन्द्र कोष में उज्जयिनी के राजा जयसेन के पुत्र केशी का कोई जिक्र नहीं किया गया है । पर दोनों ग्रन्थों में केशिश्रमरण को भगवान् पार्श्वनाथ का चतुर्थ पट्टधर आचार्य, प्रदेशी का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला मान कर एक ही केशिश्रमरण के होने की मान्यता का प्रतिपादन किया है । 'जैन परम्परा नो इतिहास' नामक गुजराती पुस्तक के लेखक मुनि दर्शनविजय आदि ने भी समान नाम वाले दोनों केशिश्रमरणों को अलग न मान कर एक ही माना है । इसके विपरीत ' पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' नामक पुस्तक के दोनों केशश्रमणों का भिन्न-भिन्न परिचय नहीं देते हुए भी प्राचार्य केशी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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