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________________ महाराजा उदायन] . भगवान् महावीर ७५६ कारण अभीचिकुमार के हृदय पर बड़ा गहरा आघात पहँचा फिर भी कूलोन होने के कारण उसने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। वह किसी प्रकार के संघर्ष में नहीं उलझा और अपनी चल सम्पत्ति ले सकुटुम्ब मगध-सम्राट कणिक के पास चम्पा नगरी में जा बसा। सम्राट कणिक ने उसे अपने यहां ससम्मान रखा । अभीचिकुमार के मन में पिता द्वारा अपने अधिकार से वंचित रखे जाने की कसक जीवन भर कांटे की तरह चुभती रही। वह भगवान् का श्रद्धालु श्रमणोपासक रहा, पर उसने कभी अपने पिता महाश्रमण उदायन को नमस्कार तक नहीं किया और इस बैर को अन्तर्मन में रखे हुए ही श्रावकधर्म का पालन करते हुए एक मास की संलेषना से आयुष्य पूर्ण कर पिता के प्रति अपनी दुर्भावना की आलोचना बिना किये असुरकुमार देव हो गया। असुरकुमार की आय पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में मानवभव प्राप्त कर सिद्ध, बद्ध और मुक्त होगा। __ महाश्रमण उदायन ने दीक्षित होने के पश्चात् एकादश अंगों का अध्ययन किया और कठोर तपस्या से वे अपने कर्म-बन्धनों को काटने में तत्परता से संलग्न हो गये । विविध प्रकार की घोर तपस्याओं से उनका शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया । अन्त-प्रान्तादि प्रतिकूल पाहार से राजषि उदायन के शरीर में भयंकर व्याधि उत्पन्न हो गई । वे वैद्यों के अनुरोध से औषधि-रूप में दधि का सेवन करने लगे। ___एकदा भगवान् की आज्ञा से राजर्षि उदायन एकाकी विचरते हए वीतभय नगर पहुंचे । मंत्री को मालूम हुआ तो उसने दुर्भाव से महाराज केशी के मन को बदलने के लिये कहा कि परीषहों से पराजित हो राजषि उदायन पुनः राज्य लेने के लिये यहाँ आ गये हैं । केशी ने कहा---"कोई बात नहीं, यह राज्य उन्हीं का दिया हुआ है, यदि वे चाहेंगे तो मैं समस्त राज्य उन्हें लौटा दूंगा।" दुष्ट मन्त्री ने अनेक प्रकार से समझाते हुए केशोकुमार से कहा-'राजन् ! यह राजधर्म नहीं है, हाथ में आई राज्यलक्ष्मी का जो निरादर करता है वह कहीं का नहीं रहता । अतः येन केन-प्रकारेण विष प्रयोगादि से उदायन को मौत के घाट उतारने में ही अपना कल्याण है।" मंत्री की धुरिणत राय से केशी भी आखिर सहमत हो गया और उदायन को विपमिश्रित भोजन देने का षड़यंत्र रचा गया। एक ग्वालिन के द्वारा राजर्षि उदायने को विषमिश्रित दधि तीन बार बहराया गया, पर राजर्षि के भक्त एक देव द्वारा तीनों ही बार उस दही का अपहरण कर लिया गया और मुनि उसे नहीं खा सके। किन्तु एक बार देव की असावधानी से मूनि को विषमिश्रित दही गूजरी द्वारा बहरा ही दिया गया । दही के अभाव में मुनि के शरीर में असमाधि रहने लगी थी, अतः उन्होंने दही ले लिया । दही खाने के थोड़ी ही देर बाद विप का प्रभाव होते देख राजपि उदायन सँभल गये और उन्होंने समभाव से संथारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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