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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महावीर उदायन भद्र उद्यान से विहार कर क्रमशः वीतभया नगरी के मृगवन नामक उद्यान में पधारं गये । सत्य ही है-उत्कृष्ट अभिलाषा सद्यः फलप्रदायिनी होती है।
भगवान् के शुभागमन का सुसंवाद सुनकर उदायन के मानन्द का पारावार नहीं रहा। इच्छा करते ही जिस व्यक्ति के सम्मुख स्वयं कल्पतरु उपस्थित हो जाय उसके प्रानन्द का कोई क्या अनुमान कर सकता है ? उदायन ने प्रभु के आगमन का संवाद सुनते ही सहसा सिंहासन से समुत्थित हो सात पाठ डग उस दिशा की ओर बढ़कर, जिस दिशा में त्रिलोकीनाथ प्रभु विराजमान थे, प्रभु को तीन बार भावविभोर हो सविधि वन्दन किया और तत्क्षण सकल परिजन, पुरजन तथा अधिकारीगण सहित वह प्रभु की सेवा में मगवन उद्यान में पहुँचा। यथाभिलषित सविधि वन्दना, पर्युपासना के पश्चात् उसने प्रभु का हृदयहारी, पुनीत प्रवचन सुना।
भगवान् महावीर ने संसार की क्षणभंगुरता एवं प्रसारता, वैराग्य की अभयता-महत्ता तथा मोक्ष-साधन की परम उपादेयता का चित्रण करते हुए ज्ञानादि की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित की कि सभी सभासद चित्रलिखित से रह गये। महाराजा उदायन पर भगवान् के वीतरागतामय उपदेश का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह संसार के भोगोपभोगों को विषतुल्य हेय समझकर अक्षय शिव-सुख की कामना करता हुया भगवान् से निवेदन करने लगा- "भगवन् ! मेरे अन्तर्चक्ष उन्मीलित हो गये हैं, मुझे यह संसार दावानल के समान दिख रहा है। प्रभो! मैं अपने पुत्र अभीचिकुमार को राज्य सौंपकर श्रीचरणों में दीक्षित होना चाहता हूँ । प्रभो! आप मुझे अपने पावन चरणों में स्थान दीजिये ।
प्रभु ने फरमाया-"जिस कार्य से सुख प्राप्त हो, उस कल्याणकारी कार्य में प्रमाद मत करो।"
महाराजा उदायन परम संतोष का अनुभव करते हुए प्रभु को वन्दन कर नगर की ओर लौटे । मार्ग में उनके मन में विचार आया--- "जिस राज्य को महा दुखानुबन्ध का कारण समझ कर मैं छोड़ रहा हूँ उस राज्य का अधिकारी अगर मैंने अपने पुत्र अभीचिकुमार को बना दिया तो वह अधिक मोही होने से राज्य-भोगों में अन रक्त एवं गृद्ध होकर न मालम कितने अपरिमित समय तक भवभ्रमण करता हुआ जन्म-मरण के असह्य दुःखों का भागी बन जायगा । अतः उसका कल्याण इसी में है कि उसे राज्य न देकर मेरे भानजे केशिकुमार को राज्य दे दूं। तदनुसार राजप्रासाद में आकर महाराज उदायन ने अपने अधीनस्थ सभी राजाओं और सामन्तों को अपना निश्चय सुनाया और अपने भानजे केशिकूमार को अपने विशाल राज्य का अधिकारी बनाकर स्वयं भगवान् महावीर के पास प्रवजित हो गये।
पिता द्वारा अपने जन्मसिद्ध पैतृक अधिकार से वंचित किये जाने के
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