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________________ ७६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् महावीर के कुछ आमरण अनशन धारण कर शुक्ल ध्यान से क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो केवलज्ञान प्राप्त किया और अर्ध मास की संलेखना से ध्र व, अक्षय, अव्यावाध शाश्वत निर्वाण प्राप्त किया। यही राजर्षि उदायन भगवान महावीर द्वारा अन्तिम मोक्षगामी राजा बताये गये हैं । धन्य है उनकी परम निष्ठा, अविचल श्रद्धा व समता को ! - भगवान महावीर के कुछ अविस्मरणीय संस्मरण पोत्तनपुर नगर की बात है, एक बार भगवान महावीर वहाँ के मनोरम नामक उद्यानस्थ समवशरण में विराजमान थे । पोत्तनपुर के महाराज प्रसन्नचन्द्र प्रभु को वन्दन करने आये और उनका वीतरागपूर्ण उपदेश सुनकर सांसारिक भोगों से विरक्त हो दीक्षित हुए तथा स्थविरों के पास विनयपूर्वक ज्ञानाराधन करते हुए सूत्रार्थ के पाठी हो गये। कुछ काल के बाद पोत्तनपुर से विहार कर भगवान् राजगृह पधारे । मुनि प्रसन्नचन्द्र, जो विहार में भगवान् के साथ थे, राजगृह में भगवान् से कुछ दूर जाकर एकान्त मार्ग पर ध्यानावस्थित हो गये। संयोगवश भगवान् को वन्दन करने के लिये राजा श्रेणिक अपने परिवार व सैन्य सहित उसी मार्ग से गुजरे। उन्होंने राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को मार्ग पर एक पैर से ध्यान में खड़े देखा। भक्ति से उन्हें प्रणाम कर वे महावीर प्रभु के पास आये और सविनय वंदन कर बोले"भगवन ! नगरी के बाहर जो राषि उग्र तप के साथ ध्यान कर रहे हैं, वे यदि इस समय काल धर्म को प्राप्त करें तो कौनसी गति में जायें ?" प्रभु मे कहा-"राजन् ! वे सप्तम नरक में जायें ।" प्रभ की वाणी सुनकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हया । वे मन ही मन सोचने लगे-क्या ऐसा उग्र तपस्वी भी नरक में जाये, यह संभव हो सकता है ? उन्होंने क्षणभर के बाद पुनः जिज्ञासा करते हुए पूछा-"भगवन् ! वे यदि अभी कालधर्म को प्राप्त करें, तो कहां जायेंगे ?" भगवान् महावीर ने कहा-"सर्वार्थसिद्ध विमान में ।" इस उत्तर को सुनकर श्रेणिक और भी अधिक विस्मित हुए और पूछने लगे-"भगवन ! दोनों समय की बात में इतना अन्तर क्यों ? पहले आपने सप्तम नरक कहा और अब सर्वार्थसिद्ध विमान फरमा रहे हैं ? इस अन्तर का कारण क्या है ?" __ भगवान् महावीर बोले-"राजन् ! प्रथम बार जब तुमने प्रश्न किया था, उस समय ध्यानस्थ मुनि अपने प्रतिपक्षी सामन्तों से मानसिक युद्ध कर रहे थे और बाद के प्रश्नकाल में वे ही अपनी भूल के लिये आलोचना कर उच्च विचारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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