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अविस्मरणीय संस्मरण] भगवान् महावीर
७६१ की श्रेणी पर आरूढ़ हो गये थे। इसलिये दोनों प्रश्नों के उत्तर में इतना अन्तर दिखाई दे रहा है।"
__ श्रेणिक ने उनकी भूल का कारण जानना चाहा तो प्रभु ने कहा-"राजन्! वन्दन को आते समय तुम्हारे दो सेनापतियों ने राजर्षि को ध्यानमग्न देखा। उनमें से एक "सुमुख" ने राजर्षि के तप की प्रशंसा की और कहा-"ऐसे घोर तपस्वी को स्वर्ग या मोक्ष दुर्लभ नहीं है ।” पर दूसरे साथी "दुर्मुख" को उसको यह बात नहीं जंची। वह बोला-"अरे ! तू नहीं जानता, इन्होंने बड़ा पाप किया है। अपने नादान बालक पर राज्य का भार देकर स्वयं साधु रूप से ये ध्यान लगाये खड़े हैं । उधर विरोधी राज्य द्वारा, इनके अबोध शिशु पर, जिस पर कि मंत्री का नियन्त्रण है, आक्रमण हो रहा है । संभव है, बालकुमार को मंत्री राज्यच्युत कर स्वयं राज्याधिकार प्राप्त कर ले या शत्रु-राजा ही उसे बन्दी बना ले ।
दुमूख की बात ध्यानान्तरिका के समय तपस्वी के कानों में पड़ी और वे ध्यान की स्थिति में अत्यन्त क्षब्ध हो उठे। वे मन ही मन पुत्र की ममता से प्रभावित होकर विरोधी राजा एवं अपने धूर्त मंत्री के साथ घोर युद्ध करने लगे। परिणामों की उस भयंकरता के समय तुमने प्रश्न किया, अतः उन्हें सातवीं नरक का अधिकारी बताया गया, किन्तु कुछ ही काल के बाद राजर्षि ने अपने मुकूट से शत्रु पर आघात करना चाहा और जब सिर पर हाथ रखा तो उन्हें सिर मूडित प्रतीत हुआ। उसी समय ध्यान पाया-“मैं तो मुनि हूं। मुझे राज-ताज के हानि-लाभ से क्या मतलब ?" इस प्रकार प्रात्मालोचन करते हुए जब वे अध्यवसायों की उच्च श्रेणी पर आरूढ़ हो रहे थे तब सर्वार्थसिद्ध विमान की गति बतलाई गई।"
इधर जब भगवान श्रेणिक को अपने कथन के रहस्य को समझा रहे थे उसी समय आकाश में दुन्दुभि-नाद सुनाई दिया। श्रेणिक ने पूछा- “भगवन् ! यह दुन्दुभि-नाद कैसा?"
प्रभु ने कहा-"वही प्रसन्नचन्द्र मुनि, जो सर्वार्थसिद्ध विमान के योग्य अध्यवसाय पर थे, शुक्ल-ध्यान की विमल श्रेणी पर आरूढ़ हो मोह कर्म के साथ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का भी क्षय कर केवलज्ञान, केवलदर्शन के अधिकारी बन गये हैं। उसी की महिमा में देवों द्वारा दुन्दुभि बजायी जा रही है ।' श्रेणिक प्रभु की सर्वज्ञता पर मन ही मन प्रमुदित हुए।
दूसरी घटना राजगृही नगरी की है। एक बार भगवान महावीर वहाँ के उद्यान में विराजमान थे । उस समय एक मनुष्य भगवान के पास आया और चरणों पर गिर कर बोला-नाथ ! आपका उपदेश भवसागर से पार लगाने में जहाज के समान है । जो आपकी वाणी श्रद्धापूर्वक सुनते और तदनुकूल आचरण करते हैं, वे धन्य हैं।"
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