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शारीरिक स्थिति और नामकरण]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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कर श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन चित्रा नक्षत्र के योग में उसने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया।
भाग्यशाली पुत्र के पुण्य-प्रभाव से देव-देवेन्द्रों ने जन्म-महोत्सव किया। महाराज समुद्र विजय ने भी प्रमोद से याचकों को मुक्तहस्त से दान देकर संतुष्ट किया। नगर में घर-घर मंगल-महोत्सव मनाया गया।
शारीरिक स्थिति पोर नामकरण अरिष्टनेमि सुन्दर लक्षण और उत्तम स्वर से युक्त थे। वे एक हजार पाठ शुभ लक्षणों के धारक, गौतम गोत्रीय और शरीर से श्याम कान्ति वाले थे। उनकी मुखाकृति मनोहर थी। उनका शारीरिक संहनन वन सा दढ़, संस्थान-प्राकार समचतुरस्र था और उदर मछली जैसा था' । उनका बल देव एवं देवपतियों से भी बढ़कर था।
बारहवें दिन महाराज समुद्र विजय ने स्वजनों एवं मित्रजनों को निमन्त्रित कर प्रीतिभोज दिया और नामकरण करते हुए बोले-“बालक के गर्भकाल में हम सब प्रकार के अरिष्टों से बचे तथा माता ने अरिष्ट रत्नमय चक्र नेमि का दर्शन किया इसलिए इस बालक का नाम अरिष्टनेमि रखा जाता है।
अरिष्टनेमि के पिता महाराज समुद्र विजय हरिवंशीय प्रतापी राजा थे। अतः यहां पर उनके वंश परिचय में हरिवंश की उत्पत्ति का परिचय प्रावश्यक समझ कर दिया जा रहा है :
हरिवंश को उत्पत्ति दशवें तीर्थकर भगवान् शीतलनाथ के तीर्थ में वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में सुमुह नाम का राजा था। उसने वीरक मामक एक व्यक्ति की वनमाला नाम की परम सुन्दरी स्त्री को प्रच्छन्न रूप से अपने पास रख लिया । पत्नी के विरह में विलाप करता हुआ वीरक पर्ख विक्षिप्त सा रहने लगा और कालान्तर में वह बालतपस्वी हो गया। उधर वनमाला कौशाम्बीपति सुमह की परमप्रिया होकर विविध मानवी भोगों का उपभोग करती हुई रहने लगी।
१ वज्जरिसह संघयणो समचउरंसो झसोयरो।
[उ. सू., म. २२] २ मरिष्टं प्रप्रशस्तं तदनेन नामित, नेमि सामान्यं,
विसेसो रिट्ठरयणामई नेमी, उप्पयमारणी सुविणे पंच्छति । [भाव. बूणि, उत्त. पृ. ११] ३ सीयलजिरणस्स तित्थे, सुमुहो नामेण आसि महिपालो । कोसम्बीनयरीए, तत्थेव य बीरय कुविन्दो ॥ [पउम. प. उ. २१ गा. २]
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