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________________ ३१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [हरिवंश की उत्पत्ति ___ इस प्रकार सुख से जीवन बिताते हुए एक दिन राजा सुमुह अपनी प्रिया वनमाला के साथ वन विहार करने गया और वहां वीरक को बड़ी दयनीय दशा में देखकर अपने कुकृत्य के लिए पश्चात्ताप करने लगा-"मोह ! मैंने कितना बड़ा दुष्कृत्य किया है, मेरे ही अन्याय और दोष के कारण यह वीरक इस प्रवस्था को प्राप्त होकर तपस्वी बना है।" ' वनमाला भी इसी प्रकार पश्चात्ताप करने लगी । इस तरह पश्चात्ताप करते हुई दोनों ने भद्र एवं सरल परिणामों के कारण मनुष्य आयु का बन्ध किया। सहसा बिजली गिरने से दोनों का वहीं प्राणान्त हो गया और वे हरिवास नामकी भोगभूमि में युगल रूप में उत्पन्न हुए।। कालान्तर में वीरक भी मर कर सौधर्म कल्प में किल्विषी देव हुआ और उसने प्रवधिज्ञान से देखा कि उसका शत्र हरि अपनी प्रिया हरिणी के साथ भोगभूमि में अनपवर्त्य आयु से उत्पन्न होकर भोगोपभोग का सुख भोग रहा है। वह कुपित होकर सोचने लगा--"क्या इस दुष्ट को निष्ठुरतापूर्वक कुचल कर चूर्ण कर दूं? मेरा अपकार करके भी ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए हैं अतः इन्हें यों तो नहीं मार सकता। पर इन्हें ऐसे स्थान पर पहुंचाया जाय जहां तीव्र बन्ध योग्य भोग, भोग कर ये दुःख परम्परा में फंस जायं।" उसने ज्ञान से देखा व सोचा-"चम्पा का नरेश अभी-अभी कालधर्म को प्राप्त हुआ है अतः इन्हें वहां पहुंचा दूं क्योंकि एक दिन का भी आसक्तिपूर्वक किया गया राज्य-भोग दुर्गति का कारण होता है, तो फिर अधिक दिन की तो बात ही क्या है ?" ऐसा विचारकर देव ने करोड़ पूर्व की प्राय वाले हरि-युगल को चित्तरस कल्पवृक्ष सहित उठाकर चम्पा नगरी के उद्यान में पहुंचा दिया और नागरिकजनों को आकाशवाणी से कहने लगा-"तुम लोग राजा की खोज में चिन्तित क्यों हो, मैं तुम्हारे लिए करुणा कर यह राजा लाया हूं। तुम लोग इनका उचित आहार-विहार से पोषण करो, मांस-रस-भावित फल से इनका प्रेमसम्पादन करते रहना।" ऐसा कहकर देव ने हरि-युगल की करोड़ पूर्व की आयु का एक लाख वर्ष में अपवर्तन किया' और अवगाहना (शरीर की ऊंचाई) भी घटा कर १०० १ पुब्वकोडीसेसाउएसु तेसि वेरं सुमरिऊरण वाससयसहस्सं विधारेऊण चम्पाए रायहाणीए इक्खागम्मि चन्दकित्तिपत्थिवे अपुत्त वोच्छिण्णे नागरयाणं रायकंखियाणं हरिवरिसामो, तं मिहुणं साहरइ""कुरणति य से दिव्वप्पभावेण धणुसयं उच्चत्त । [वसुदेवहिंडी, खं. १, भाग २. पृ. ३५७] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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