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हरिवंश की परमरा]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि धनुष की कर दी। देव के कथनानुसार नागरिकों ने हरि का राज्याभिषेक किया और बड़े सम्मान से उसका पोषण करते रहे। तमोगुणी पाहार और भोगासक्ति के कारण हरि और हरिणी दोनों मर कर नरक गति के अधिकारी बने । यह एक आश्चर्यजनक घटना हुई क्योंकि युगलिकों का नरकगमन नहीं होता।
इसी हरि और हरिणी के युगल से हरिवंश की उत्पत्ति हुई। हरिवंश की उत्पत्ति का समय तीर्थंकर शीतलनाथ के निर्वाण पश्चात् और भगवान् श्रेयांसनाथ के पूर्व माना गया है।'
हरिवंश में अनेक शक्तिशाली, प्रतापी और धर्मात्मा राजा हुए, जिनमें से अनेकों ने कई नगर बसाये । कुछ नगर आज तक भी उन प्रतापी नराधिपतियों के नाम पर विख्यात हैं।
हरिवंश को परम्परा हरिवंश के आदिपुरुष हरि के पश्चात् इस वंश में जो पैत्रिक अधिकार के प्राधार पर उत्तराधिकारी राजा हुए उनके कुछ नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:
(१) पृथ्वीपति (हरि का पुत्र) (२) महागिरि (३) हिमगिरि (४) वसुगिरि (५) नरगिरि (६) इन्द्रगिरि
इस तरह इस हरिवंश में असंख्य राजा हुए । बीसवें तीर्थंकर भगवान् मुनिसुव्रत भी इसी प्रशस्त हरिवंश में हुए।
सामान्य रूप में युगलिक जीव अनपवर्तनीय प्रायु वाले माने गये हैं पर इनकी प्रायु का अपवर्तन हुआ क्योंकि बन्ध ऐसा ही था । वास्तव में जितना प्रायु बन्धा है उसमें घट बढ़ नहीं होती फिर भी जो व्यवहार में यह जानते हैं कि भोगभूमि का प्रायु प्रसंख्य वर्ष का ही होता है, वे करोड़ पूर्व की प्रायु के पहले मरण जानकर यही समझेगे कि इसकी मायु घट गयी है । इस दृष्टि से व्यवहार में इसे अपवर्तन कहा जाता है।
–सम्पादक १ समइक्कते सीयल जिणम्मि तहणागए य सेयंसे ।
एत्यंतरम्मि जानो हरिवंसो जह तहा सुरणह ।। चिउ. म. पु. च., पृष्ठ १८०]
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