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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ उपरिचर वसु
माधव इन्द्रगिरि का पुत्र दक्ष प्रजापति हुआ । इस दक्ष प्रजापति की रानी का नाम इला और पुत्र का नाम इल था । किसी कारणवश महारानी इला अपने पति दक्ष से रूठकर अपने पुत्र इल को साथ ले दक्ष के राज्य से बाहर चली गई और उसने ताम्रलिप्ति प्रदेश में इलावर्द्धन नामक नगर बसाया और इल ने माहेश्वरी नगरी बसाई ।
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राजा इल के पश्चात् इसका पुत्र पुलिन राज्य - सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। पुलिन ने एकदा वन में एक स्थान पर देखा कि एक हरिणी कुंडी बनाकर कुण्डलाकार मुद्रा में एक सिंह का सामना कर रही है। इसे उस क्षेत्र का प्रभाव समझकर पुलिन ने उस स्थान पर 'कु' डिगी' नगरी बसाई । पुलिन के पश्चात् 'वरिम' नामक राजा हुआ, जिसने इन्द्रपुर नगर बसाया । इसी वंश के राजा 'संजती' ने वरणवासी अथवा वारणवासी नाम की एक नगरी बसाई । इसी राजवंश में कोल्लयर नगर का अधिपति 'कुरिणम' नाम का एक प्रसिद्ध राजा हुआ फिर इसका पुत्र महेन्द्र दत्त राजा हुआ । महेन्द्र दत्त के अरिष्टनेमि और मत्स्य नामक दो पुत्र बड़े प्रतापी राजा हुए । अरिष्टनेमि ने गजपुर नामक नगर बसाया और मत्स्य ने भंद्दिलपुर नगर । अरिष्टनेमि और मत्स्य के, प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए ।
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इसी हरिवंश के 'अयधरणू' नामक एक राजा ने सोज्झ नामक नगर बसाया । इसके अनन्तर 'मूल' नामक राजा हुआ। राजा मूल के पश्चात् 'विशाल' नामक नृप हुआ जिसने 'मिथिला' नगरी को बसाया ।
राजा विशाल के पश्चात् क्रमशः 'हरिषेण', 'नहषेरण', 'संख', 'भद्र' और 'अभिचन्द्र' नाम के बहुत से राजा हुए । 'अभिचन्द्र' का पुत्र 'वसु' एक बड़ा प्रसिद्ध राजा हुआ जो आगे चलकर उपरिचर वसु ( श्राकाश में प्रधर सिंहासन पर बैठने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
उपरिचर वसु
यह वसु हरिवंश का एक महान् प्रतापी राजा था । उसने बाल्यावस्था में क्षीरकदम्बक नामक उपाध्याय के पास अध्ययन किया । महर्षि नारद एवं प्राचार्यपुत्र पर्वत भी वसु के सहपाठी थे । ये तीनों शिष्य जिस समय उपाध्याय क्षीरकदम्बक के पास अध्ययन कर रहे थे, उस समय किसी एक अतिशय - ज्ञानी ने अपने साथी साधु से कहा कि इन तीनों विद्यार्थियों में से एक तो राजा बनेगा दूसरा स्वर्ग का अधिकारी होगा और तीसरा नरक में जायगा ।"
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१ तत्थेगो प्रइसयनाणी, तेण इयरो भरिणश्रो- एए तिष्णि जरणा, एएसि एक्को राजा भविस्सइ, एगो नरगगामि, एगो देवलोयगामि त्ति
[ वसुदेव हिण्डी, प्र० खण्ड, पृ० १८६ - ६०]
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