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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ जन्म
मार्ग में जितारि की कन्या यशोमती का हरण कर ले जाने वाले विद्याधर मणिशेखर से कुमार ने युद्ध किया और उसे पराजित कर दिया । यशोमती ने कुमार की वीरता पर मुग्ध होकर सहर्ष उनका वरण किया ।
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जब राजकुमार शंख ने पल्लीपति को बन्दी के रूप में महाराज के सम्मुख प्रस्तुत किया तो वे बड़े प्रसन्न हुए और राजकुमार को सुयोग्य समझ उसे राज्य : पद पर अभिषिक्त कर स्वयं दीक्षित हो गये । श्रीषेण मुनि ने निर्मल भाव से साधना करते हुए घाति- कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान की प्राप्ति की ।
एक बार महाराज शंख अपने परिवार सहित मुनि श्री की सेवा में वन्दना करने गये और उनकी देशना सुनकर बोले- "भगवन् ! मेरा यशोमती पर इतना स्नेह क्यों है, जिससे कि मैं चाहकर भी संयम नहीं ले सकता ?"
केवली मुनि ने पूर्वजन्म का परिचय देते हुए कहा - "शंख ! तुम जब धनकुमार के भव में थे तब यह तुम्हारी पत्नी थी। फिर सौधर्म देवलोक में भी तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में रहे । चौथे भव में महेन्द्र देवलोक में तुम दोनों मित्र थे । फिर पांचवें अपराजित के भव में भी तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में थे । छट्ठे जन्म में प्रारण देवलोक में भी तुम दोनों देव हुए । यह सातवां जन्म है, जहां तुम पति-पत्नी के रूप में हो । पूर्व भवों के दीर्घकालीन सम्बन्ध के कारण तुम्हारा इसके साथ प्रगाढ़ प्रेम चल रहा है । आगे भी एक देव का भव पूर्णकर तुम बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के रूप से जन्म लोगे ।"
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श्रीषेरण केवली के पास पूर्वभव की बात सुनकर महाराज शंख के मन में वैराग्य जागृत हुआ और उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर बन्धु-बान्धवों के साथ प्रव्रज्या ग्रहरण कर ली ।
तप-संयम के साथ अर्हत्, सिद्ध, साधु की भक्ति में उत्कृष्ट अभिरुचि और उत्कट भावना के साथ निरत रहने के कारण उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया एवं समाधिभाव से प्राय पूर्णकर वे अपराजित विमान में अहमिन्द्र रूप से अनुत्तर वैमानिक देव हुए।
जन्म
महाराज शंख का जीव अपराजित विमान से अहमिन्द्र की पूर्ण स्थिति भोगकर कार्तिक कृष्णा १२ को चित्रा नक्षत्र के योग में च्युत हुआ और महाराज समुद्र विजय की धर्मशीला महारानी शिवा देवी की कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ ।
शिवादेवी १४ शुभ स्वप्नों के दर्शन से परम भाग्यशाली पुत्र-लाभ की बात जानकर बहुत प्रसन्न हुई और उचित आहार-विहार से गर्भकाल को पूर्ण
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