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भगवान् श्री अरिष्टनेमि भगवान् नमिनाथ के पश्चात् बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि हुए।
पूर्वभव भगवान अरिष्टनेमि के जीव ने शंख राजा के भव में तीर्थकर पद की योग्यता का सम्पादन किया। भारतवर्ष में हस्तिनापुर के भूपति श्रीषेण की भार्या महारानी श्रीमती ने शंख के समान उज्ज्वल वर्ण वाले पुत्ररत्न को जन्म दिया, प्रतः उसका नाम शंख कुमार रखा गया।
किसी समय कुमार अपने मित्रों के संग क्रीडांगण में क्रीड़ा कर रहे थे कि महाराज श्रीषेण के पास लोगों ने पाकर दर्दभरी पुकार की-"राजन ! सीमा पर पल्लीपति समरकेतु ने सीमावासियों को लूट कर उन पर भयंकर मातंक जमा रखा है। यदि समय रहते सैनिक कार्यवाही नहीं की गई तो राज्य शत्रु के हाथ में चला जायेगा। पाप जैसे वीरों की छत्रछाया में राज्य का संरक्षण नहीं हुमा तो फिर हम अन्य से तो किसी प्रकार की प्राशा नहीं कर सकते।"
यह पुकार सुनकर महाराजा श्रीषेण बड़े क्रुद्ध हुए और उन्होंने तत्काल पल्लोपति का सामना करने के लिये सेना सहित जाने की घोषणा कर दी। कुमार को जंब ज्ञात हुआ कि पिताजी युद्ध में जा रहे हैं तो वे महाराज के सम्मुख उपस्थित होकर बोले-"तात ! हमारे रहते माप एक साधारण पल्लीपति से लड़ने के लिये जायें, यह हमारे लिये शोभास्पद नहीं है । इस तरह हम युद्धकौशल भी कैसे सीख पायेंगे तथा हमारा उपयोग भी क्या होगा? मापकी प्राज्ञा भर की देर है, हमें पल्लीपति को जीतने में कुछ भी देर नहीं लगेगी।"
कुमार के साहसपूर्ण वचन सुनकर महाराज ने प्रसन्न हो सैन्य सहित उन्हें युद्ध में जाने की अनुमति दे दी।
पिता की माशा पाते ही कुमार सैन्य सजाकर चल पड़े और पल्लीपति के किले को अपने अधिकार में लेकर चारों ओर से पल्लीपति को घेर लिया
और उसके द्वारा लूटे गये धन को उससे छीन कर उन प्रजाजनों को लौटा दिया जिनका कि धन लूटा गया था। कुमार ने कुशलता से उस लुटेरे पल्लीपति को पकड़ कर महाराज श्रीषेण के सम्मुख बन्दी के रूप में प्रस्तुत करने हेतु हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया।
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